सहज गीता -रामसुखदास पृ. 72

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तेरहवाँ अध्याय

(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)

वह परमात्मतत्त्व अनादि और परम ब्रह्म है। उस तत्त्व को सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते; क्योंकि वास्तव में उसका वर्णन शब्दों से नहीं कर सकते। उस परमात्मा के सब जगह हाथ और पैर हैं, सब जगह नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब जगह कान हैं। इसलिए वे किसी भी प्राणी से दूर नहीं हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। वे परमात्मा संपूर्ण इंद्रियों से रहित हैं; फिर भी संपूर्ण इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं। उनकी किसी भी प्राणी में आसक्ति नहीं है, फिर भी वे प्राणिमात्र का पालन पोषण करते हैं। वे गुणों से रहित होने पर भी संपूर्ण गुणों के भोक्ता हैं। वे परमात्मा संपूर्ण प्राणियों के बाहर भी हैं तथा भीतर भी हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वहीं हैं अर्थात् संसार में परमात्म के सिवाय कुछ भी नहीं है। देश, काल और वस्तु- तीनों ही दृष्टियों से वे परमात्मा दूर से दूर भी हैं और नजदीक से नजदीक भी हैं। अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वे परमात्मा इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जानने में नहीं आते। उन्हें तो स्वयं के द्वारा ही जाना जा सकता है।
वे परमात्मा स्वयं विभागरहित (एक) होते हुए भी संपूर्ण प्राणियों में विभक्त (अनेक)- की तरह प्रतीत होते हैं। वे जानने योग्य एक ही परमात्मा ब्रह्म रूप से संपूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले, विष्णु रूप से सबका भरण-पोषण करने वाले और शिव-रूप से सबका संहार करने वाले हैं। वे परमात्मा संपूर्ण ज्योतियों (ज्ञान)- के भी ज्योति (प्रकाशक) हैं। उनमें अज्ञान का अत्यंत अभाव है; क्योंकि वे ज्ञान स्वरूप हैं। वे परमात्मा ही जानने योग्य हैं, इसलिए उन्हें जानने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहता। उन्हें तत्त्वज्ञान से ही जाना जा सकता है, क्रिया, वस्तु आदि से नहीं। ऐसे वे परमात्मा सबके हृदय में नित्य-निरंतर विराजमान रहते हैं। इस प्रकार साधक को क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय तीनों को जानना चाहिए, जिनका वर्णन मैंने संक्षेप से कर दिया है। मेरा भक्त इन तीनों को तत्त्व से जानकर मेरे साथ अभिन्नता का अनुभव कर लेता है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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