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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)वह परमात्मतत्त्व अनादि और परम ब्रह्म है। उस तत्त्व को सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते; क्योंकि वास्तव में उसका वर्णन शब्दों से नहीं कर सकते। उस परमात्मा के सब जगह हाथ और पैर हैं, सब जगह नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब जगह कान हैं। इसलिए वे किसी भी प्राणी से दूर नहीं हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। वे परमात्मा संपूर्ण इंद्रियों से रहित हैं; फिर भी संपूर्ण इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं। उनकी किसी भी प्राणी में आसक्ति नहीं है, फिर भी वे प्राणिमात्र का पालन पोषण करते हैं। वे गुणों से रहित होने पर भी संपूर्ण गुणों के भोक्ता हैं। वे परमात्मा संपूर्ण प्राणियों के बाहर भी हैं तथा भीतर भी हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वहीं हैं अर्थात् संसार में परमात्म के सिवाय कुछ भी नहीं है। देश, काल और वस्तु- तीनों ही दृष्टियों से वे परमात्मा दूर से दूर भी हैं और नजदीक से नजदीक भी हैं। अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वे परमात्मा इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जानने में नहीं आते। उन्हें तो स्वयं के द्वारा ही जाना जा सकता है। |
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