सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय(सांख्य योग)जिनका मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं है, जो भोगों में आसक्त हैं, उनकी जो रात (परमात्मा से विमुखता) है, वह संयमी साधक की दृष्टि में दिन के प्रकाश की तरह है। परंतु भोगों में आसक्त मनुष्य जिसको दिन के प्रकाश की तरह मानते हैं, तत्त्वज्ञ मननशील संयमी साधक की दृष्टि में वह रात के अंधकार की तरह है। जैसे समुद्र में संपूर्ण नदियों का जल आकर मिलता है, फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित रहता है, ऐसे ही परमात्मा को जानने वाले संयमी मनुष्य को संपूर्ण सांसारिक भोग प्राप्त होने पर भी उसमें हर्ष शोक आदि कोई विकार पैदा नहीं होता। ऐसे निष्काम मनुष्य को परमशान्ति प्राप्त हो जाती है। परंतु जिसके भीतर भोगों की कामना है, उसे कितनी ही सांसारिक वस्तुएं प्राप्त हो जायँ तो भी उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती। इसलिए जो मनुष्य कामना, स्पृहा[1], ममता और अहंकार से सर्वथा रहित हो जाता है, वह शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे पार्थ! यह ‘ब्राह्मी स्थिति’ अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त हुए मनुष्य की स्थित है। इस स्थिति को प्राप्त होने पर फिर कभी मोह नहीं होता। यदि कोई मनुष्य अंतकाल में भी इसमें स्थित हो जाय अर्थात् अहंता-ममतारहित हो जाय तो वह जन्म मरण से मुक्त हो जाता है।
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अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ कामना का त्याग होने पर भी शरीर-निर्वाह मात्र के लिए कुछ न कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि की आवश्यकता रह जाती है, जिसको ‘स्पृहा’ कहते हैं।
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