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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
कामादि के वशीभूत, यश चाहने वाला एवं सन्मार्ग को त्याने वाला होकर भी यदि कोई वृन्दावन में श्रीवृन्दावन की कृपा प्राप्त कर ले, तो कौन सी सिद्धि है जो उसे प्राप्त नहीं हो सकती।।87।।
असीम कृपा-सिंधु एवं पूर्णचन्द्र से भी सुशीतल इस श्रीवृन्दावन से एकात्म (वृन्दावनमय) श्रेष्ठ भाव की क्यों नहीं भावना करता।।88।।
हे श्रीमद्वृन्दावन! परम विशुद्ध सत्वमय आप में यदि में अनन्त अपराध भी करूं तो भी आप ही एकमात्र मेरी शरण हैं।।89।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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