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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
श्रीराधा के मुखचन्द्र से निकली हुई महा मधुर शीतल वचन सुधा के द्वारा वह हर्षित रहती है।।41।।
उन वाक्यों को अनेक आर सुन-सुन कर वह अतिशय सुखित होती है एवं पुनः पुनः सुनने के लिए उत्सुक रहती हे, इस प्रकार नित्य सकल अवस्थाओं में सब प्रकार से स्मरण कर, इस समस्त की यदि स्फुर्ति समस्त की यदि स्फुर्ति न हो तो भी इसकी कथादि स्मरण करते-करते श्रीवृन्दावन में वास कर।।42।।
अत्यन्त अशुचि वीभत्स देहादिक में भूल कर भी अति अनर्थभमूलक दृष्टिपात मत करना।।43।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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