विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
अति अविच्छिन्न भाव से निरन्तर प्रोन्मत्तअंग-केलि-विलपासादि के द्वारा श्रीयुगलकिशोर क्रीड़ा कर रहे हैं कि जिसका एक बिन्दु भी अन्य व्यक्ति से हृदय गम्य नहीं हो सकता।।86।।
परम आश्चर्यमय संगीत-कला के द्वारा उनका मन्मथ प्रकाशित होता है, वे अति विशुद्ध आद्य-अनुरागमय महा सागर में आप्लुत हो रहे हैं।।87।।
दिव्य सखी मण्डली से सेवित होकर वे नित्य ही विहार कर रहे हैं, एवं महाविदग्ध (प्राण-प्रियतम युगलकिशोर) के रस में मग्नचित्त सखीगणों के सर्वस्व जीवन हो रहे हैं।।88।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज