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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
अनेक प्रकार अगण्य ब्रह्माण्ड समूहयुक्त जड़-दुख-मिथ्या स्वभाव वाली त्रिगुणमयी प्रकति को उत्तीर्ण होकर पारावार-विहीन विस्तृत एक कामानन्द सागर प्रकाशित हो रहा है, वह स्वप्रकार है, महास्वच्छ ज्यातिस्वरूप एवं अति उत्कृष्ट स्थान है श्रीवृन्दावन।।56-57।।
चैतन्य-सत्ता, से आलोकित, तरंगहीन, चंचलता-हीन अज्ञान एवं अज्ञान के कार्य से जो रहित है, पण्डितगण उसे ‘परमब्रह्म’ कहते हैं।।58।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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