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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
असमोर्द्ध कामवर्द्धनशील श्रीराधा-कुण्ड में सखीसमाज सहित महारस में आविष्ट एवं विह्वल उन गौरश्याम युगलकिशोर को स्मरण कर ।।15।।
जो श्रीवृन्दावन अपने अनन्त विचित्र वैभवरस से वैकुण्ठपति को भी मोहित करता है, एवं श्रीराधा-हृदय-बन्धु श्रीश्यामसुसन्दर के मधुर प्रेम द्वारा निखिल वस्तुओं को उन्मत तथा मदान्ध कर देता है और इस पृथ्वी पर विद्यानन्द-सुधा के एकमात्र समुद्र के परे परम उज्ज्वल जो यह असीम रसदायक श्रीवृन्दावन है- उसे प्राप्त करके कोई फिर अन्य वस्तुओं को देखना चाहता है क्या?।।16।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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