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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
जो दिव्य काव्य नाटकादि को पाठ करने वाले शारी-शुकादिकों सुन्दरतापूर्ण हो रहा है, दिव्य मधुकरों की गुजार से मुखरित एवं अत्यन्त सुन्दर हो रहा है, जो को किलादिकों की ध्वनि से तथा अनेक संगीतों से गूँज रहा है।।98।।
मृदु मधुर शीतल दिव्य-सुगन्धियुक्त वायु रन्ध्रों से में प्रवेश कर जिसकी अन्तरंग भाव से सेवा कर रहा है; जो दोनों की प्रिय वस्तुओं से सुसज्जित होने के कारण लोभनीय हो रहा है- ऐसे अति मनोहर कुंज-मन्दिर में काम-विह्वल उन गौर-नील-छवि श्रीयुगलकिशोर को स्मरण कर।।99।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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