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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
क्षीण नाड़ीयुक्त (अतिदुर्बल) एवं अमार्ज्जित शरीर युक्त जटा एवं कन्था-फटे वस्त्रों की कौपीन धारण करते हुए, अति शान्तस्वभावयुक्त एवं चुपचाप रहकर तथा समस्त अधमों से भी महा अधमवत बहुत दूर रहते हुए श्रीराधाजी के चरणों की सेवा में विलीन-हृदय होकर श्रीवृन्दावन में कृतार्थ होऊं-यही मेरी प्रार्थना है।।48।।
यदि कुबेर का धन प्राप्त हो जाय, तो उसका क्या फल? यदि वृहस्पति जैसी सुवाणी प्राप्त हो, तो उससे क्या? महेन्द्र के लोक का ऐश्वर्य मिले, तो उससे क्या लाभ? कामदेव जैसा सुन्दर शरीर मिले तो क्या ? तपस्या, योगादि की सिद्धि से कया प्रयोजन? क्योंकि श्रीवृन्दावन-नामक धाम से जो व्यक्ति विमुख है, उसी के लिये ये सब विडम्बना मात्र हैं।।49।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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