विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
महाशोचनीय से भी अति महाशोचनीय मैं हूँ! महा मूर्ख से भी अति महामूर्ख बुद्धि मैं हूँ!! क्योंकि जो शीघ्र ही सब कुछ त्याग कर श्रीवृन्दावन का आश्रय नहीं करता।।28।।
श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के चरण तो दूर हैं (उनकी प्राप्ति मेंरे लिये कठिन है) महा कलियुग आ गया!! इसलिये श्रीवृन्दावन की रति के बिना श्रीकृष्ण-प्रेम कैसे प्राप्त होगा?।।29।।
अहो! विष्ठोभोजी शूकर-पशु की भाँति उत्फुल्ल-दशा (प्रसन्नता) को प्राप्त वही को सकता है, जो मूर्ख आनन्दसागर श्रीवृन्दावन का आश्रय नहीं करता।।30।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज