यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 88

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।46।।

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय से जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म को जाननेवाले ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रहता है। तात्पर्य यह है कि जो वेदों से ऊपर उठता है वह ब्रह्म को जानता है, वही ब्राह्मण है। अर्थात् तू वेदों से ऊपर उठ, ब्राह्मण बन।

अर्जुन क्षत्रिय था, श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मण बन। ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि वर्ण स्वभाव की क्षमताओं के नाम हैं। यह कर्म प्रधान है, न कि जन्म से निर्धारित होनेवाली कोई रूढ़ि। जिसे गंगा की धारा प्राप्त है, उसे क्षुद्र जलाशय से क्या प्रयोजन? कोई उसमें शौच लेता है, तो कोई पशुओं को नहला देता है। इसके आगे कोई उपयोग नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म को साक्षात् जाननेवाले उस विप्र महापुरुष का, उस ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है। प्रयोजन रहता अवश्य है, वेद रहते हैं; क्योंकि पीछेवालों के लिये उनका उपयोग है। वहीं से चर्चा आरम्भ होगी। इसके उपरान्त योगेश्वर श्रीकृष्ण कर्म करते समय बरती जानेवाली सावधानियों का प्रतिपादन करते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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