विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याययावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय से जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म को जाननेवाले ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रहता है। तात्पर्य यह है कि जो वेदों से ऊपर उठता है वह ब्रह्म को जानता है, वही ब्राह्मण है। अर्थात् तू वेदों से ऊपर उठ, ब्राह्मण बन। अर्जुन क्षत्रिय था, श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मण बन। ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि वर्ण स्वभाव की क्षमताओं के नाम हैं। यह कर्म प्रधान है, न कि जन्म से निर्धारित होनेवाली कोई रूढ़ि। जिसे गंगा की धारा प्राप्त है, उसे क्षुद्र जलाशय से क्या प्रयोजन? कोई उसमें शौच लेता है, तो कोई पशुओं को नहला देता है। इसके आगे कोई उपयोग नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म को साक्षात् जाननेवाले उस विप्र महापुरुष का, उस ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है। प्रयोजन रहता अवश्य है, वेद रहते हैं; क्योंकि पीछेवालों के लिये उनका उपयोग है। वहीं से चर्चा आरम्भ होगी। इसके उपरान्त योगेश्वर श्रीकृष्ण कर्म करते समय बरती जानेवाली सावधानियों का प्रतिपादन करते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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