यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 866

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

अन्ततः भगवान ने कहा- अर्जुन! क्या तुमने मेरे उपदेश को एकाग्रचित्त हो श्रवण किया? क्या मोह से उत्पन्न तुम्हारा अज्ञान नष्ट हुआ? अर्जुन ने कहा-

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।[1]

भगवन्! मेरा मोह नष्ट हुआ। मैं स्मृति को प्राप्त हुआ हूँ। केवल सुना भर नहीं अपितु स्मृति में धारण कर लिया है। मैं आपके आदेश का पालन करूँगा, युद्ध करूँगा। उन्होंने धनुष उठा लिया, युद्ध हुआ, विजय प्राप्त की, एक विशुद्ध धर्म-साम्राज्य की स्थापना हुई और एक धर्मशास्त्र के रूप में वही आदि धर्मशास्त्र गीता पुनः प्रसारण में आ गयी।

गीता आपका आदि धर्मशास्त्र है। यही मनुस्मृति है, जिसे अर्जुन ने अपनी स्मृति में धारण किया था। मनु के समक्ष दो कृतियों का उल्लेख है-एक तो सूर्य में उपलब्ध गीता, दूसरे वेद मनु के समक्ष उतरे। तीसरी कोई कृति मनु के समय में प्रकट नहीं हुई थी। उस समय लिखने-लिखाने का प्रचलन नहीं था, कागज-कलम का प्रचलन नहीं था इसलिये ज्ञान को श्रुत अर्थात् सुनने और स्मृति-पटल पर धारण करने की परम्परा थी। जिनसे मानवों का प्रार्दुभाव हुआ, सृष्टि के प्रथम मानव उन मनु महाराज ने वेद को श्रुति तथा गीता को स्मृति का सम्मान दिया।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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