विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायभोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। उनकी वाणी की छाप जिन-जिन के चित्त पर पड़ जाती है, अर्जुन! उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है, न कि वे कुछ पाते हैं। उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्तवालों के और भोग-ऐश्वर्य में आसक्ति वाले पुरुषों के अन्तःकरण में क्रियात्मिका बुद्धि नहीं रह जाती। इष्ट में समाधिस्थ करनेवाली निश्चयात्मक क्रिया उनमें नहीं होती। ऐसे अविवेकियों की वाणी सुनता कौन है? भोग और ऐश्वर्य में आसक्तिवाले ही सुनते हैं, अधिकारी नहीं सुनता। ऐसे पुरुषों में सम और आदितत्त्व में प्रवेश दिलानेवाली निश्चयात्मक क्रिया से संयुक्त बुद्धि नहीं होती। प्रश्न उठता है कि ‘वेदवादरताः’- जो वेद के वचनों में अनुरक्त है, क्या वे भी भूल करते हैं? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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