यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 86

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।44।।

उनकी वाणी की छाप जिन-जिन के चित्त पर पड़ जाती है, अर्जुन! उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है, न कि वे कुछ पाते हैं। उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्तवालों के और भोग-ऐश्वर्य में आसक्ति वाले पुरुषों के अन्तःकरण में क्रियात्मिका बुद्धि नहीं रह जाती। इष्ट में समाधिस्थ करनेवाली निश्चयात्मक क्रिया उनमें नहीं होती।

ऐसे अविवेकियों की वाणी सुनता कौन है? भोग और ऐश्वर्य में आसक्तिवाले ही सुनते हैं, अधिकारी नहीं सुनता। ऐसे पुरुषों में सम और आदितत्त्व में प्रवेश दिलानेवाली निश्चयात्मक क्रिया से संयुक्त बुद्धि नहीं होती।

प्रश्न उठता है कि ‘वेदवादरताः’- जो वेद के वचनों में अनुरक्त है, क्या वे भी भूल करते हैं? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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