विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायवे फल वाले वाक्य में ही अनुरक्त रहते हैं, वेद के वाक्यों को ही प्रमाण मानते हैं, स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानते हैं। उनकी बुद्धि बहुत-सी भेदों वाली है, इसलिये अनन्त क्रियाओं की रचना कर लेते हैं। वे नाम तो परमतत्त्व परमात्मा का ही लेते हैं; किन्तु उसकी ओट में अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। तो क्या अनन्त क्रियाएँ कर्म नहीं हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं, अनन्त क्रियाएँ कर्म नहीं हैं। तो वह एक निश्चित क्रिया है क्या? श्रीकृष्ण अभी यह नहीं बताते। अभी तो केवल इतना कहते हैं कि अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओं वाली होती है, इसलिये वे अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। वे केवल विस्तार ही नहीं करते अपितु आलंकारिक शैली में उसे व्यक्त भी करते हैं। उसका प्रभाव क्या होता है? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज