यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 85

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

वे फल वाले वाक्य में ही अनुरक्त रहते हैं, वेद के वाक्यों को ही प्रमाण मानते हैं, स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानते हैं। उनकी बुद्धि बहुत-सी भेदों वाली है, इसलिये अनन्त क्रियाओं की रचना कर लेते हैं। वे नाम तो परमतत्त्व परमात्मा का ही लेते हैं; किन्तु उसकी ओट में अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। तो क्या अनन्त क्रियाएँ कर्म नहीं हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं, अनन्त क्रियाएँ कर्म नहीं हैं। तो वह एक निश्चित क्रिया है क्या?

श्रीकृष्ण अभी यह नहीं बताते। अभी तो केवल इतना कहते हैं कि अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओं वाली होती है, इसलिये वे अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। वे केवल विस्तार ही नहीं करते अपितु आलंकारिक शैली में उसे व्यक्त भी करते हैं। उसका प्रभाव क्या होता है?

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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