यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमकर्म-ऐसी ही भ्रान्ति कर्म के सम्बन्ध में भी मिलती है। अध्याय 2/39 में उन्होंने बताया- अर्जुन! अब तक यह बुद्धि तेरे लिये सांख्ययोग के विषय में कही गयी और अब इसी को तू निष्काम कर्म के विषय में सुन। इससे युक्त होकर तू कर्मों के बन्धन का अच्छी तरह नाश कर सकेगा। इसका थोड़ा भी आरचरण महान् जन्म-मरण के भय से उद्धार कराने वाला होता है। इस निष्काम कर्म में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है, बुद्धि एक ही है, दिशा भी एक ही है। लेकिन अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली है, इसलिये वे कर्म के नाम पर अनेक क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। अर्जुन! तू नियत कम कर। अर्थात् क्रियाएँ बहुत-सी हैं वे कर्म नहीं हैं। कर्म कोई निर्धारित दिशा है। कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो जन्म-जन्मान्तरों से चले आ रहे शरीरों की यात्रा का अन्त कर देता है। यदि एक भी जन्म लेना पड़ा तो यात्रा पूरी कहाँ हुई? यज्ञ-वह नियत कर्म है कौन-सा? श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’- अर्जुन! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। इसके अतिरिक्त दुनिया में जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है, न कि कर्म। कर्म तो इस संसार-बन्धन से मोक्ष दिलाता है। अब वह यज्ञ क्या है, जिसे क्रियान्वित करें तो कर्म सम्पादित हो सके? अध्याय चार में श्रीकृष्ण ने तेरह-चौदह तरीके से यज्ञ का वर्णन किया, जो सब मिलाकर परमात्मा में प्रवेश दिला देनेवाली विधि-विशेष का चित्रण है-जो श्वास से, ध्यान से, चिन्तन और इन्द्रिय-संयम इत्यादि से सिद्ध होनेवाला है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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