यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 838

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

कर्म-ऐसी ही भ्रान्ति कर्म के सम्बन्ध में भी मिलती है। अध्याय 2/39 में उन्होंने बताया- अर्जुन! अब तक यह बुद्धि तेरे लिये सांख्ययोग के विषय में कही गयी और अब इसी को तू निष्काम कर्म के विषय में सुन। इससे युक्त होकर तू कर्मों के बन्धन का अच्छी तरह नाश कर सकेगा। इसका थोड़ा भी आरचरण महान् जन्म-मरण के भय से उद्धार कराने वाला होता है। इस निष्काम कर्म में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है, बुद्धि एक ही है, दिशा भी एक ही है। लेकिन अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली है, इसलिये वे कर्म के नाम पर अनेक क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं। अर्जुन! तू नियत कम कर। अर्थात् क्रियाएँ बहुत-सी हैं वे कर्म नहीं हैं। कर्म कोई निर्धारित दिशा है। कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो जन्म-जन्मान्तरों से चले आ रहे शरीरों की यात्रा का अन्त कर देता है। यदि एक भी जन्म लेना पड़ा तो यात्रा पूरी कहाँ हुई?

यज्ञ-वह नियत कर्म है कौन-सा? श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’- अर्जुन! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। इसके अतिरिक्त दुनिया में जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है, न कि कर्म। कर्म तो इस संसार-बन्धन से मोक्ष दिलाता है। अब वह यज्ञ क्या है, जिसे क्रियान्वित करें तो कर्म सम्पादित हो सके? अध्याय चार में श्रीकृष्ण ने तेरह-चौदह तरीके से यज्ञ का वर्णन किया, जो सब मिलाकर परमात्मा में प्रवेश दिला देनेवाली विधि-विशेष का चित्रण है-जो श्वास से, ध्यान से, चिन्तन और इन्द्रिय-संयम इत्यादि से सिद्ध होनेवाला है।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः