विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायश्रीकृष्ण ने अपना परिचय देते हुए कहा है कि- मैं हूँ तो अव्यक्त, लेकिन जिस भाव को प्राप्त हूँ, वह ईश्वर सबके हृदय-देश में निवास करता है। वह सदैव है और रहेगा। सबको उसकी शरण जाना है। शरण जानेवाला ही महात्मा है, अनुरागी है और अनुराग ही अर्जुन है। इसके लिये किसी स्थितप्रज्ञ महापुरुष की शरण जाना नितान्त आवश्यक है; क्योंकि वही इसके प्रेरक हैं। इस अध्याय में सन्यास का स्वरूप स्पष्ट किया गया कि सर्वस्व का न्यास ही सन्यास है। केवल बाना धारण कर लेना सन्यास नहीं है; बल्कि इसके साथ एकान्त का सेवन करते हुए नियत कर्म में अपनी शक्ति समझकर अथवा समर्पण के साथ सतत प्रयत्न अपरिहार्य है। प्राप्ति के साथ सम्पूर्ण कर्मों का त्याग ही सन्यास है, जो मोक्ष का पर्याय है। यही सन्यास की पराकाष्ठा है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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