विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायमनुष्यमात्र के द्वारा शास्त्र के अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य होने में पाँच कारण हैं-कर्ता (मन), पृथक्-पृथक् करण (जिनके द्वारा किया जाता है। शुभ पाल लगता है तो विवेक, वैराग्य, शम, दम करण हैं। अशुभ पार लगता है तो काम, क्रोध, राग, द्वेष इत्यादि करण होंगे), नाना प्रकार की इच्छाएँ (इच्छाएँ अनन्त हैं, सब पूर्ण नहीं हो सकतीं। केवल वह इच्छा पूर्ण होती है, जिसके साथ आधार मिल जाता है।), चौथा कारण है आधार (साधन) और पाँचवाँ हेतु है दैव (प्रारब्ध या संस्कार)। प्रत्येक कार्य के होने में यही पाँच कारण हैं, फिर भी जो कैवल्यस्वरूप परमात्मा को कर्ता मानता है, वह मूढ़बुद्धि यथार्थ नहीं जानता। अर्थात् भगवान नहीं करते, जबकि पीछे कह आये हैं कि अर्जुन! तू निमित्त मात्र होकर खड़ा भर रह, कर्ता-धर्ता तो मैं हूँ। अन्ततः उन महापुरुष का आशय क्या है? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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