विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायतच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः। हे राजन्! हरि के (जो शुभाशुभ सर्व का हरण कर स्वयं शेष रहते हैं, उन हरि के) अति अद्भुत रूप को पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान् आश्चर्य होता है और मैं बारम्बार हर्षित होता हूँ। इष्ट का स्वरूप बार-बार स्मरण करने की वस्तु है। अन्त में संजय निर्णय देते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज