यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 812

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।68।।

जो मनुष्य मेरी पराभक्ति को प्राप्त कर इस परम रहस्ययुक्त गीता के अपदेश को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा। अर्थात् वह भक्त मुझे ही प्राप्त होगा, जो सुन लेगा; क्योंकि उपदेश को भली प्रकार सुनकर हृदयंगम कर लेगा, तो उस पर चलेगा तथा पार पा जायेगा। अब उस उपदेशकर्ता के लिए कहते हैं-

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।69।।

न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई है और उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होगा। किससे? जो मेरे भक्तों में मेरा उपदेश करेगा, उनको उधर उस पथ पर चलायेगा; क्योंकि कल्याण का यही एक स्त्रोत है, राजमार्ग है। अब देखें अध्ययन-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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