यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 741

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

सप्तदश अध्याय

निष्कर्ष-

अध्याय के आरम्भ में ही अर्जुन ने प्रश्न किया कि- भगवन्! जो शास्त्रविधि को त्यागकर और श्रद्धा से युक्त होकर यजन करते हैं (लोग भूत, भवानी अन्यान्य पूजते ही रहते हैं) तो उनकी श्रद्धा कैसी है? सात्विकी है, राजसी है अथवा तामसी? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! यह पुरुष श्रद्धा का स्वरूप (पुतला) है, कहीं-न-कहीं उनकी श्रद्धा होगी ही। जैसी श्रद्धा वैसा पुरुष, जैसी वृत्ति वैसा पुरुष। उनकी वह श्रद्धा सात्विकी, राजसी और तामसी तीन प्रकार की होती है। सात्विकी श्रद्धा वाले देवताओं को, राजसी श्रद्धावाले यक्ष (जो यश, शौर्य प्रदान करे), राक्षसों (जो सुरक्षा दे सके) का पीछा करते हैं और तामसी श्रद्धावाले भूत-प्रेतों को पूजते हैं। शास्त्रविधि से रहित इन पूजाओं द्वारा ये तीनों प्रकार के श्रद्धालु शरीर में स्थित भूतसमुदाय अर्थात् अपने संकल्पों और हृदय-देश में स्थित मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करते हैं, न कि पूजते हैं। उन सबको निश्चय ही तू असुर जान अर्थात् भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस तथा देवताओं को पूजनेवाले असुर हैं।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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