यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 74

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

अथ चेत्वमिमं धम्र्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।33।।

और यदि तू इस ‘धर्मयुक्त संग्राम’ अर्थात् शाश्वत-सनातन परमधर्म परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाला धर्मयुद्ध नहीं करेगा तो ‘स्वधर्म’ अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न संघर्ष करने की क्षमता, क्रिया में प्रवृत्त होने की क्षमता को खोकर पाप अर्थात् अवागमन और अपकीर्ति को प्राप्त होगा। अपकीर्ति पर प्रकाश डालते हैं-

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।34।।

सब लोग बहुत काल तक तेरी अपकीर्ति का कथन करेंगे। आज भी पदच्युत होनेवाले महात्माओं में विश्वामित्र, पराशर, निमि, श्रृंगी इत्यादि की गणना होती है। बहुत से साधक अपने धर्म पर विचार करते हैं, सोचते हैं कि लोग हमें क्या कहेंगे? ऐसा भाव भी साधना में सहायक होता है। इससे साधना में लगे रहने की प्रेरणा मिलती है। कुछ दूरी तक यह भाव भी साथ देता है। माननीय पुरुषों के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर होती है।



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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