विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्दश अध्यायअन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण निर्णय देते हैं- वह गुणातीत पुरुष जिस ब्रह्म के साथ एकीभाव में स्थित होता है उस ब्रह्म का अमृत-तत्त्व का शाश्वतघर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् प्रधन कर्ता हूँ। अब तो श्रीकृष्ण चले गये, अब वह आश्रय तो चला गया, तब तो बड़े संशय की बात है। वह आश्रय अब कहाँ मिलेगा? लेकिन नहीं, श्रीकृष्ण ने अपना परिचय दिया है कि वे एक योगी थे, स्वरूपस्थ महापुरुष थे। ‘शिश्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’ अर्जुन ने कहा- मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे सँभालिये। स्थान-स्थान पर श्रीकृष्ण ने अपना परिचय दिया, स्थितप्रज्ञ महापुरुष के लक्षण बताये और उनसे अपनी तुलना की। अतः स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण एक महात्मा, योगी थे। अब यदि आपको अखण्ड एकरस आनन्द, शाश्वत-धर्म अथवा अमृत-तत्त्व की आवश्यकता है तो इन सबकी प्राप्ति के स्त्रोत एकमात्र सद्गुरु हैं। सीधे पुस्तक पढ़कर इसे कोई नहीं पा सकता। जब वही महापुरुष आत्मा से अभिन्न होकर रथी हो जाते हैं, तो शनैः-शनैः अनुरागी को संचालित करते हुए उसके स्वरूप तक, जिनमें वे स्वयं प्रतिष्ठित हैं, पहुँचा देते हैं। वही एकमात्र माध्यम है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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