यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 591

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वादश अध्याय


अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।16।।

जो पुरुष आकांक्षाओं से रहित, सर्वथा पवित्र, ‘दक्षः’ अर्थात् आराधना का विशेषज्ञ है (ऐसा नहीं कि चोरी करता हो तो दक्ष है। श्रीकृष्ण के अनुसार कर्म एक ही है, नियत कर्म- आराधना-चिन्तन, उसमें जो दक्ष है), जो पक्ष-विपक्ष से परे है, दुःखों से मुक्त है, सभी आरम्भों का त्यागी वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। करने योग्य कोई क्रिया उसके द्वारा आरम्भ होने के लिये शेष नहीं रहती।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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