विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दएकादश अध्यायअर्जुन उवाच जनार्दन! आपके इस अत्यन्त शान्त मनुष्य रूप को देखकर अब मैं प्रसन्नचित्त हुआ। अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूँ। अर्जुन ने कहा था, भगवन्! अब आप मुझे उसी चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराइये। योगेश्वर ने कराया भी; किन्तु अर्जुन ने जब देखा तो क्या पाया? ‘मानुषं रूपं’- मनुष्य के रूप को देखा। वस्तुतः प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष ही चतुर्भुज और अनन्तभुज कहलतो हैं। दो भुजावाला महापुरुष तो अनुरागी के समक्ष बैठा ही है; किन्तु अन्यत्र कहीं से कोई स्मरण करता है तो वही महापुरुष उस स्मरणकर्ता से जागृत (रथी) होकर उसका भी मार्गदर्शन करता है। ‘भुजा’ कार्य का प्रतीक है। वे भीतर भी कार्य करते हैं और बाहर भी, यही चतुर्भुज स्वरूप है। उनके हाथों में शंख, चक्र, गता और पद्म क्रमशः वास्तविक लक्ष्यघोष, साधन-चक्र का प्रवर्तन, इन्द्रियों का दमन और निर्मल-निर्लेप कार्यक्षमता का प्रतीक मात्र है। यही कारण है कि चतुर्भुज रूप में उन्हें देखने पर भी अर्जुन ने उन्हें मनुष्य रूप में ही पाया। चतुर्भुज महापुरुषों के शरीर और स्वरूप से कार्य करने की विधि-विशेष का नाम है, न कि चार हाथवाले कोई श्रीकृष्ण थे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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