यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 563

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

एकादश अध्याय

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।51।।

जनार्दन! आपके इस अत्यन्त शान्त मनुष्य रूप को देखकर अब मैं प्रसन्नचित्त हुआ। अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूँ। अर्जुन ने कहा था, भगवन्! अब आप मुझे उसी चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराइये। योगेश्वर ने कराया भी; किन्तु अर्जुन ने जब देखा तो क्या पाया? ‘मानुषं रूपं’- मनुष्य के रूप को देखा। वस्तुतः प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष ही चतुर्भुज और अनन्तभुज कहलतो हैं। दो भुजावाला महापुरुष तो अनुरागी के समक्ष बैठा ही है; किन्तु अन्यत्र कहीं से कोई स्मरण करता है तो वही महापुरुष उस स्मरणकर्ता से जागृत (रथी) होकर उसका भी मार्गदर्शन करता है। ‘भुजा’ कार्य का प्रतीक है। वे भीतर भी कार्य करते हैं और बाहर भी, यही चतुर्भुज स्वरूप है। उनके हाथों में शंख, चक्र, गता और पद्म क्रमशः वास्तविक लक्ष्यघोष, साधन-चक्र का प्रवर्तन, इन्द्रियों का दमन और निर्मल-निर्लेप कार्यक्षमता का प्रतीक मात्र है। यही कारण है कि चतुर्भुज रूप में उन्हें देखने पर भी अर्जुन ने उन्हें मनुष्य रूप में ही पाया। चतुर्भुज महापुरुषों के शरीर और स्वरूप से कार्य करने की विधि-विशेष का नाम है, न कि चार हाथवाले कोई श्रीकृष्ण थे।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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