यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 467

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

नवम अध्याय


क्रमशः सत्वगुण का बाहुल्य होने पर रजोगुण स्वल्प रह जाता है, आराधना-कर्म में रति हो जाती है, ऐसे त्रेतायुग में त्याग की स्थितिवाला साधक अनेकों यज्ञ करता है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’-यज्ञ-श्रेणीवाला जप, जिसका उतार-चढ़ाव श्वास-प्रश्वास पर है, उसे करने की क्षमता रहती है। जब मात्र सत्वगुण शेष रहा, विषमता खो गयी, समता आ गयी, यह कृतयुग अर्थात् कृतार्थ युग अथवा सत्ययुग का प्रभाव है। उस समय सब योगी विज्ञानी होते हैं, ईश्वर से मिलनेवाले होते हैं, स्वाभाविक ध्यान पकड़ने की उनमें क्षमता रहती है।

विवेकीजन युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मन में समझते हैं। मन के निरोध के लिये अधर्म का परित्याग कर धर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। निरुद्ध मन का भी विलय हो जाने पर युगों के साथ-साथ कल्प का भी अन्त हो जाता है। पूर्णता में प्रवेश दिलाकर कल्प भी शान्त हो जाता है। यही प्रलय है, जब प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। इसके पश्चात् महापुरुष की जो रहनी है वही उसकी प्रकृति है, उसका स्वभाव है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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