यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दनवम अध्याय
विवेकीजन युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मन में समझते हैं। मन के निरोध के लिये अधर्म का परित्याग कर धर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। निरुद्ध मन का भी विलय हो जाने पर युगों के साथ-साथ कल्प का भी अन्त हो जाता है। पूर्णता में प्रवेश दिलाकर कल्प भी शान्त हो जाता है। यही प्रलय है, जब प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। इसके पश्चात् महापुरुष की जो रहनी है वही उसकी प्रकृति है, उसका स्वभाव है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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