सत्त गुण

हिन्दू दर्शन के अनुसार सत्त्व (सात्विक) सांख्य दर्शन में वर्णित तीन गुणों में से एक है। अन्य दो गुण हैं- रज गुण और तम गुण। सत्त्वगुण का अर्थ 'पवित्रता' से है।

सत्त्व गुणों का उत्पत्ति

गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के समक्ष सत्त्व गुण का वर्णन स्पष्ट रूप से किया है-

कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण[1] अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं।[2] हे निष्पाप! उन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है,[3] वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उनके अभिमान से बांधता है।[4]

सत्त्व गुणों के लक्षण व वृद्धि

भगवान ने अन्य दो गुणों को दबाकर प्रत्येक गुणों के बढ़ने की बात कही गयी। अब प्रत्येक गुण की वृद्धि के लक्षण जानने की इच्छा होने पर सत्त्वगुण वृद्धि के लक्षण बतलाये जाते हैं- जिस समय इस देह में[5] तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है।[6]

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभिप्राय यह है कि गुण तीन हैं सत्त्व, रज और तम उनके नाम हैं और तीनों परस्पर भिन्न हैं। ये तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं एवं समस्त जड़ पदार्थ इन्ही तीनों का विस्तार है।
  2. जिसका शरीर में अभिमान है, उसी पर इन गुणों का प्रभाव पड़ता है और वास्तव में स्वरूप से वह सब प्रकार के विकारों से रहित और अविनाशी, अतएव उनका बन्धन हो ही नहीं सकता। अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण उसने बन्धन मान रखा है। इन तीनों गुणों जो अपने अनुरूप भागों में और शरीर में इसका ममत्व, आसक्ति और अभिमान उत्पन्न कर देना है- यही उन तीनों गुणों का उसको शरीर में बांध देना है।
  3. सत्त्वगुण स्वरूप सर्वथा निर्मल है, उसमें किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है इसी कारण वह प्रकाशक और अनामय है। उससे अन्तःकरण और इन्द्रियों में प्रकाश की वृद्धि होती है एवं दुःख, विक्षेप, दुर्गुण, और दुराचारों का नाश होकर शांति की प्राप्ति होती है।
  4. सुख शब्द यहाँ गीता के अठारवें अध्याय के छत्तीसवें और सैंत्तीसवें श्लोकों में जिसके लक्षण बतलाये गये हैं, उस सात्त्विक सुख का वाचक है। उस सुख की प्राप्ति के समय जो मैं सुखी हूँ। इस प्रकार अभिमान हो जाता है तथा ज्ञान बोधशक्ति का नाम है उसके प्रकट होने पर जो उसमें 'मैं ज्ञानी हूँ', ऐसा अभिमान हो जाता है वह उसे गुणातीत अवस्था से वञ्चित रख देता है, अत: यही सत्त्वगुण जीवात्मा को सुख और ज्ञान संग से बांधता है।
  5. अभिप्राय यह है कि सत्त्वगुण की वृद्धि का अवसर मनुष्य-शरीर में ही मिल सकता है और इसी शरीर में सत्त्वगुण की सहायता पाकर मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है, दूसरी योनियों में ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं हैं
  6. शरीर में चेतना, हलकापन तथा इन्द्रिय और अन्तःकरण में निर्मलता और चेतना की अधिकता हो जाना ही ‘प्रकाश’ का उत्पन्न होना है एवं सत्य-असत्य तथा कर्तव्य-अर्कतव्य निर्णय करने वाली विवेशक्ति का जाग्रत हो जाना ‘ज्ञान’ का उत्पन्न होना है। जिस समय प्रकाश और ज्ञान- इन दोनों का प्रादुर्भाव होता है, उस समय दुःख, शोक, चिंता, भय, चंचलता, निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि का अभाव सा हो जाता है। उस समय मनुष्य को सावधान होकर अपना मन भजन-ध्यान में लगाने की चेष्टा करनी चाहिये तभी सत्त्वगुण की प्रवृति अधिक समय ठहर सकती है अन्यथा उसकी अवहेलना कर देने से शीघ्र ही तमोगुण या रजोगुण उसे दबाकर अपना कार्य आरम्भ कर सकते हैं।

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