यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 273

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


प्रस्तुत श्लोक में दो पण्डितों की चर्चा है। एक पण्डित तो वह है जो पूर्णज्ञाता है और दूसरा वह जो विद्या-विनयसम्पन्न है। वे दो कैसे? वस्तुतः प्रत्येक श्रेणी की दो सीमाएँ होती हैं-एक तो अधिकतम सीमा पराकाष्ठा और दूसरी प्रवेशिका अथवा निम्नतम सीमा। उदाहरण के लिये भक्ति की निम्नतम सीमा वह है जहाँ से भक्ति आरम्भ की जाती है; विवेक, वैराग्य और लगन के साथ जब आराधना करते हैं और अधिकतम सीमा वह है जहाँ भक्ति अपना परिणाम देने की स्थिति में होती है। ठीक इसी प्रकार ब्राह्मण-श्रेणी है।

जब ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली क्षमताएँ आती हैं, उस समय विद्या होती है, विनय होता है। मन का शमन इन्द्रयों का दमन, अनुभवी सूत्रपात का संचार, धरावाही चिन्तन, ध्यान और समाधि इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली सारी योग्यताएँ उसके अन्तराल में स्वाभाविक कार्यरत रहती हैं। यह ब्राह्मणत्व की निम्नतम सीमा है। उच्चतम सीमा जब आती है, जब क्रमशः उन्नत होते-होते वह ब्रह्म का दिग्दर्शन करके उसमें विलय पा जाता है। जिसे जानना था, जान लिया। वह पूर्णज्ञाता है। अपुनरावृत्तिवाला ऐसा महापुरुष उस विद्या-विनयसम्पन्न ब्राह्मण, चाण्डाल, कुत्ता, हाथी और गाय सब पर समान दृष्टिवाला होता है; क्योंकि उसकी दृष्टि हृदयस्थित आत्म-स्वरूप पर पड़ती है। ऐसे महापुरुष को परमगति में क्या मिला है और कैसे? इस पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण बताते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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