यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 272

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


श्रीकृष्ण ने पर्याप्त गो-सेवा की थी। उन्हें गाय के प्रति गौरवपूर्ण शब्द कहना चाहिये था; किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा। श्रीकृष्ण ने गाय को धर्म में कोई स्थान नहीं दिया। उन्होंने केवल इतना माना कि अल्स जीवात्माओं की तरह उसमें भी आत्मा है। गाय का आर्थिक महत्व जो भी हो, उसका धार्मिक वैशिष्टय परवर्ती लोगों की देन है। श्रीकृष्ण ने पीछे बताया कि अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली होती है, इसलिये वे अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं।

दिखावटी शोभायुक्त वाणी में वे उसे व्यक्त भी करते हैं। उनकी वाणी की छाप जिनके चित्त पर पड़ती है, उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है। वे कुछ पाते नहीं, नष्ट हो जाते हैं। जबकि निष्काम कर्मयोग में अर्जुन! निर्धारित क्रिया एक ही है-यज्ञ की प्रक्रिया ‘आराधना’। गाय, कुत्ता, हाथी, पीपल, नदी का धार्मिक महत्व इन अनन्त शाखावालों की देन है। यदि इनका कोई धार्मिक महत्व होता तो श्रीकृष्ण अवश्य कहते। हाँ, मन्दिर, मस्जिद इत्यादि पूजा के स्थल आरम्भिक काल में अवश्य हैं। वहाँ प्रेरणादायक सामूहिक उपदेश हैं तो उनकी उपयोगिता अवश्य है, वे धर्मोपदेश केन्द्र हैं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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