यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 190

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामाधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।6।।


मैं विनाशरहित, पुनः जन्मरहित और समस्त प्राणियों के स्वर में संचारित होने पर भी प्रकृति को अधीन करके आत्ममाया से प्रकट होता हूँ। एक माया तो अविद्या है जो प्रकृति में ही विश्वास दिलाती है, नीच एवं अधम योनियों का कारण बनती है। दूसरी माया है आत्ममाया, जो आत्मा में प्रवेश दिलाती है, स्वरूप के जन्म का कारण बनती है। इसी को योगमाया भी कहते हैं। जिससे हम विलग हैं उस शाश्वत स्वरूप से यह जोड़ती है, मिलन कराती है। उस आत्मिक प्रक्रिया द्वारा मैं अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अधीन करके ही प्रकट होता हूँ।

प्रायः लोग कहते हैं कि भगवान का अवतार होगा तो दर्शन कर लेंगे। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होता कि कोई दूसरा देख सके। स्वरूप का जन्म पिण्डरूप में नहीं होता। श्रीकृष्ण कहते हैं-योग-साधना द्वारा आत्ममाया द्वारा अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को स्ववश करके मैं क्रमशः प्रकट होता हूँ। लेकिन किन परिस्थितियों में?



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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