यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 19

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।20।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथ स्थापय मेऽच्युत।।21।।

संयम रूपी संजय ने अज्ञान से आवृत मन को समझाया कि हे राजन्! इसके उपरान्त ‘कपिध्वजः’- वैराग्य रूपी हनुमान, वैराग्य ही ध्वज है जिसका (ध्वज राष्ट्र का प्रतीक माना जाता है। कुछ लोग कहते हैं - ध्वजा चंचल थी, इसलिये कपिध्वज कहा गया। किन्तु नहीं, यहाँ कपि साधारण बन्दर नहीं स्वयं हनुमान थे, जिन्होंने मान-अपमान का हनन किया था - ‘सम मानि निरादर आदरही।’[1] प्रकृति की देखी-सुनी वस्तुओं से, विषयों से राग का त्याग ही ‘वैराग्य’ है। अतः वैराग्य ही जिसकी ध्वजा है) उस अर्जुन ने व्यवस्थित रूप से धृतराष्ट्र-पुत्रों को खड़े देखकर शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ‘हृषीकेशम्’- जो हृदय के सर्वज्ञाता हैं, उन योगेश्वर श्री कृष्ण से यह वचन कहा - “हे अच्युत! (जो कभी च्युत नहीं होता) मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करिये।” यहाँ सारथी को दिया गया आदेश नहीं, इष्ट (सद्गुरु) से की गयी प्रार्थना है। किसलिये खड़ा करें?-



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, 7/13/छन्द

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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