विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमच्यते।
तस्मात्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। इसलिये अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को ‘नियम्य’-संयत कर; क्योंकि शत्रु तो इनके अन्तराल में छिपा है। वह तुम्हारे शरीर के भीतर है। बाहर खोजने से वह कहीं नहीं मिलेगा। यह हृदय-देश की, अन्तर्गत् की लड़ाई है। इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी काम को ही मार। काम सीधे पकड़ में नहीं आयेगा अतः विकारों के निवास-स्थान का ही घेराव कर लो, इन्द्रियों को ही संयत कर लो। किन्तु इन्द्रियों और मन को संयत करना तो बड़ा कठिन है, क्या यह हम कर पायेंगे? इस पर श्रीकृष्ण आपकी सामथ्र्य बताते हुए प्रोत्साहित करते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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