यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 174

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।


कौन्तेय! अग्नि के समान भोगों से न तृप्त होनेवाले, ज्ञानियों के निरन्तर बैरी इस काम से ज्ञान ढँगा हुआ है। अभी तो कृष्ण ने काम और क्रोध दो शत्रु बताये। प्रस्तुत श्लोक में वे केवल एक शत्रु काम का नाम लेते हैं। वस्तुतः काम में क्रोध का अन्तर्भाव है। कार्य पूर्ण होेने पर क्रोध समाप्त हो जाता है, किन्तु कामना समाप्त नहीं होती। कामना-पूर्ति में व्यवधान पड़ते ही क्रोध पुनः आता है। काम के अन्तराल में क्रोध भी निहित है। इस शत्रु का निवास कहाँ है? इसे ढूँढ़े कहाँ? निवास जान लेने पर इसे मालूम नष्ट करने में सुविधा रहेगी श्रीकृष्ण कहते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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