विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्यायअन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। ‘अन्न ब्रह्मेति व्यजानात्।’ (तैत्तरीयोपनिषद्, भृगुबल्ली 2) अन्न परमात्मा ही है। उस ब्रह्मपीयूष को ही उद्देश बनाकर प्राणी यज्ञ की ओर अग्रसर होता है। अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है। बादलों से होने वाली वर्षा नहीं अपितु कृपावृष्टि। पूर्वसंचित यज्ञ-कर्म ही इस जन्म में, जहाँ से साधन छूटा था, वहीं से इष्टकृपा के रूप में बरस पड़ता है। आज की आराधना कल कृपा के रूप में मिलेगी। इसीलिये वृष्टि यज्ञ से होती है। स्वाहा बोलने और तिल-जौ जलाने से ही वृष्टि होती तो विश्व की अधिकांश मरुभूमि ऊसर क्यों रहती, उर्वरा बन जाती। यहाँ कृपावृष्टि यज्ञ की देन है। यह यज्ञ कर्मों से ही उत्पन्न होनेवाला है। कर्म से यज्ञ पूर्ण होता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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