यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 10

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।11।।

इसलिये सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सब-के-सब भीष्म की ही सब ओर से रक्षा करें। यदि भीष्म जीवित हैं तो हम अजेय हैं। इसलिये आप पाण्डवों से न लड़कर केवल भीष्म की ही रक्षा करें।

कैसा योद्धा है भीष्म, जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर पा रहा है, कौरवों को उसकी रक्षा-व्यवस्था करनी पड़ रही है? यह कोई बाह्य योद्धा नहीं, भ्रम ही भीष्म है। जब तक भ्रम जीवित है, तब तक विजातीय प्रवृत्तियाँ (कौरव) अजेय हैं। अजेय का यह अर्थ नहीं कि जिसे जीता ही न जा सके; बल्कि अजेय का अर्थ दुर्जय है, जिसे कठिनाई से जीता जा सकता हो।

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।।[1]

यदि भ्रम समाप्त हो जाय तो अविद्या अस्तित्वहीन हो जाय। मोह इत्यादि जो आंशिक रूप से बचे भी हैं, शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगे। भीष्म की इच्छा-मृत्यु थी। इच्छा ही भ्रम है। इच्छा का अन्त और भ्रम का मिटना एक ही बात है। इसी को सन्त कबीर ने सरलता से कहा-

इच्छा काया इच्छा माया, इच्छा जग उपजाया।
कह कबीर जे इच्छा विवर्जित, ताका पार न पाया।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 6/80 क

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यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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