यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 11

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

जहाँ भ्रम नहीं होता, वह अपार और अव्यक्त है। इस शरीर के जन्म का कारण इच्छा है। इच्छा ही माया है और इच्छा ही जगत की उत्पत्ति का कारण है। [‘सोऽकामयत।’[1], ‘तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति।’[2] कबीर कहते हैं- जो इच्छाओं से सर्वथा रहित हैं, ‘ताका पार न पाया’ - वे अपार, अनन्त, असीम तत्त्व में प्रवेश पा जाते हैं। (‘योऽकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति।’[3] - जो कामनाओं से रहित आत्मा में स्थिर आत्म स्वरूप है, उसका कभी पतन नहीं होता। वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है।) आरम्भ में इच्छाएँ अनन्त होती हैं और अन्ततोगत्वा परमात्म-प्राप्ति की इच्छा शेष रहती है। जब यह इच्छा भी पूरी हो जाती है, तब इच्छा भी मिट जाती है। यदि उससे भी बड़ी कोई वस्तु होती तो आप उसकी इच्छा अवश्य करते। जब उससे आगे कोई वस्तु है ही नहीं तो इच्छा किसकी होगी? जब प्राप्त होने योग्य कोई वस्तु अप्राप्य न रह जाय तो इच्छा भी समूल नष्ट हो जाती है और इच्छा के मिटते ही भ्रम का सर्वथा अन्त हो जाता है। यही भीष्म की इच्छा-मृत्यु है। इस प्रकार भीष्म द्वारा रक्षित हम लोगों की सेना सब प्रकार से अजेय है। जब तक भ्रम है, तभी तक अविद्या का भी अस्तित्व है। भ्रम शान्त हुआ तो अविद्या भी समाप्त हो जाती है।

भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की सेना जीतने में सुगम है। भावरूपी भीम। ‘भाव विद्यते देवः’ - भाव में वह क्षमता है कि अविदित परमात्मा भी विदित हो जाता है। ‘भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।’[4] श्रीकृष्ण ने इसे श्रद्धा कहकर सम्बोधित किया है। भाव में वह क्षमता है कि भगवान को भी वश में कर लेता है। भाव से ही सम्पूर्ण पुण्यमयी प्रवृत्तियों का विकास है। वह पुण्य का संरक्षक है। है तो इतना बलवान् कि परमदेव परमात्मा को संभव बनाता है; किन्तु साथ ही इतना कोमल भी है कि आज भाव है तो कल अभाव में बदलते देर नहीं लगती। आज आप कहते हैं कि महाराज बहुत अच्छे हैं, कल कह सकते हें कि नहीं, हमने तो देखा महाराज खीर खाते हैं।

घास पात जो खात हैं, तिनहि सतावे काम।
दूध मलाई खात जे, तिनकी जाने राम।।

इष्ट में लेश मात्र भी त्रुटि प्रतीत होने पर भाव डगमगा जाता है, पुण्यमयी प्रवृत्तियाँ विचलित हो उठती हैं, इष्ट से सम्बन्ध टूट जाता है। इसलिये भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की सेना जीतने में सुगम है। महर्षि पतंजलि का भी यही निर्णय है - ‘स तु दीघकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो दृढभूमिः।’[5]- दीर्घ काल तक निरन्तर श्रद्धा-भक्ति पूर्वक किया हुआ साधन ही दृढ़ हो पाता है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. तैत्तिरीय उप., ब्रह्मानन्द बल्ली अनुवाक् 6
  2. छान्दोग्य उप., 6/2/3
  3. ब्रहदारण्यक उप., 4/4/6
  4. रामचरितमानस, 7/92ख
  5. योगदर्शन, 1/14

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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