भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 93

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भागवत धर्म मीमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.5) तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः।
अमाययाऽनुवृत्त्या यैस् तुष्येदात्मात्मदो हरिः॥[1]

  • भागवतान् धर्मान् शिक्षेत्- भागवत धर्म सीखना चाहिए।
  • गुर्वात्म दैवतः- गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखकर और आत्म देवता का आदर कर।
  • अमायया- पूर्ण निष्कपट भाव से यानि ऋजुबुद्धि से और
  • अनुवृत्त्या- सेवाभाव से गुरु के पास जाना चाहिए।


भागवत धर्म यानि भक्ति मार्ग। भक्ति मार्ग तो सद्गुणों का ही बनता है। भक्ति मार्ग यानि सद्गुण विकास। नानक का प्रसिद्ध काव्य है : बिनु गुण कीते भगति न होई- गुण प्राप्त किए बिना भक्ति नहीं। पूजा पाठ करना भक्ति नहीं। वह श्रद्धामात्र है। भक्ति तो तब होगी, जब गुण प्राप्त करेंगे। इसलिए गुणों का अनुशीलन करना चाहिए।


आगे के श्लोकों में ऐसे 31 गुण दिए गए हैं, जिनका अनुशीलन होना चाहिए।


अनुशीलन कैसे किया जाए? ये गुण अपनी डायरी में लिख रखें और रोज़ सोने के पहले और उठने के बाद उन्हें देखें। जैसे : क्या मुझे गुस्सा आया था? आया था तो मैंने क्षमा गुण खो दिया। सभी गुणों का अनुशीलन न कर सकें, तो उनमें से कुच चुन लें और उनका परिशीलन करें। आज गलती हुई, तो कल सावधान रहें। दूसरे दिन गलती हुई, तो तीसरे दिन अधिक सावधान रहें। रोज़ इस तरह देखते जाएंगे, तो एक दिन ऐसा आयेगा जिस दिन आपकी कोई गलती नहीं होगी। ऐसा हुआ, तो आपने निषेधात्मक (निगेटिव) परीक्षा पास कर ली। लेकिन विधायक (पॉजिटिव) भी कुछ करना होगा, तो देखें कि क्या हमने किसी पर दया की, क्षमा की, प्रेम या परोपकार किया? गुण-विकास का यह एक तरीका है। इसे एक खेल ही मान सकते हैं।

' (4.6) सर्वतो मनसोऽसंगं आदौ संगं च साधुषु।
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम्॥[2]

गुणों का वर्णन कर रहे हैं :

  • आदौ- प्रारंभ में।
  • सर्वतः मनसः असंगम्- सभी ओर से मन की असंगति, मन की संगति न करना।

अब प्रश्न उठता है कि आरंभ मे जो गुण बताए जाएं, वे सरल होने चाहिए या कठिन? क्योंकि पहले नंबर मे जो गुण बताया जाएगा, वह भागवत धर्म की सर्वथा नींव होगी। यहाँ मन की असंगति पहला गुण बताया। यानि अपना सारा गोदाम ही ख़ाली कर दिया। अंदर जो सारा कचरा भरा पड़ा था, वह मन के कारण ही। मानो उस कचरे को आग ही लगा दी।


मैं इस पर बहुत जोर दिया करता हूँ। निश्चय ही मन से ऊपर उठना या मन से अलग होना कठिन बात है, पर उसके बिना गति ही नहीं। उसके बिना परमार्थ में प्रवेश ही नहीं हो सकता। इसलिए आरंभ में ही मन का असंग करने के लिए कहा गया है। कबीर ने कहा है : एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। ऐसा एक ही काम हो, जिससे सब काम सध जायँ। गीता में दैवी-संपत्ति का वर्णन करते हुए ‘अभय’ से प्रारंभ किया गया है। सिखों में भी ‘निर्भय’ और ‘निर्वैर’ ये दो गुण बताये हैं। हर एक गुण का अपना-अपना महत्त्व है। लेकिन परमार्थ प्रवेश के लिए यह जो बात भागवत में बतायी गयी है, उसके साथ मेरा मानसिक मैल बैठ गया है।


यहाँ लोग आया करते हैं जूते पहनकर, किंतु अंदर आते हैं जूते बाहर उतारकर ही। जूते पहनकर कभी अंदर नहीं आते। इसी तरह यदि आप मन के साथ आते हैं तो आइए, जूते की तरह उसे भी बाहर रखकर आइए। जब यहाँ के वापस जाएं, तो पहनकर जा सकते हैं। गुरु का दरबार है, मंदिर है, मस्जिद है, चर्च है, पंचायतघर है- वहाँ मन को बाहर रखकर ही अंदर प्रवेश करें। अन्यथा क्या होगा? ग्रामसभा में 50 लोग हैं, तो 50 मन वहाँ इकट्ठे होंगे और झगड़ा खड़ा होगा। इसलिए कुछ स्थान ऐसे हों, जहाँ प्रवेश करने के पहले मन को बाहर रखने की आदत डाली जाए। ऐसी आदत लग सकती है। एक बार वह आदत लग जाए, तो फिर मन के साथ संबंध रखने का प्रश्न ही नहीं उठेगा।

यह विज्ञान का ज़माना है। इसलिए अब भी मन के साथ संबंध बनाए रखा, तो खतम ही समझें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.3.22
  2. भागवत-11.3.23

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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