भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 92

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भागवत धर्म मीमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.4) तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्॥ref>भागवत-11.3.21 </ref>

जो उत्तम श्रेय जानना चाहता है, उसे सीखना चाहिए। कहाँ? तो गुरु के पास। वह गुरु कैसा हो?

  • शाब्दे परे च निष्णातम्- वेद, उपनिषद्, बाइबिल, कुरान, जपुजी आदि जो दर्शन ग्रंथ हैं, समाज के लिए प्रेरणादायी ग्रंथ हैं, उनमें प्रवीण होना चाहिए।
  • ब्रह्मणि- ब्रह्मविद्या का साक्षात्कारी होना चाहिए।
  • उपशमाश्रयम्- वह शांति का घर होना चाहिए। ये तीनों गुण जिसमें हों, वही योग्य गुरु होगा।


ऐसा गुरु कहाँ मिलेगा? सिखों ने निर्णय दिया है कि बहुत से गुरु होते हैं, तो उनका आपस में मतभेद खड़ा हो जाता है, इसलिए दस गुरु बस हैं। पहला गुरु नानक और आख़िर का गुरु गोविंद सिंह। उनके आगे ग्रंथ को ही गुरु समझो। आगे गुरु नहीं होंगे, ऐसी बात नहीं। फिर भी ग्रंथ को ही गुरु के तौर पर मानना चाहिए, ऐसा उन्होंने निर्णय दिया।

' न कुर्यात् न वदेत् किश्चिंत् न ध्यायेत् साध्वसाधु वा।
आत्मारामोऽनया वृत्या विचरेत् जडवन्मुनिः॥

जो गुरु होगा, वह तो जड़वत विचरण करेगा। उसे पहचानना ही मुश्किल होगा। किंतु वह मिले तो प्रमाण ग्रंथों में निष्णात, ब्रह्मविद्या का साक्षात्कारी (अनुभवी) व्यक्ति और शांति का निवास हो। महाराष्ट्र के संत एकनाथ महाराज ने विनोद किया है कि शांति घर ढूँढ़ने के लिए निकली, पर उसे कहीं जगह नहीं मिली। जहाँ भी जाती, उसे अशांति ही देखने को मिलती। सब तरह से निराश होने पर वह गुरु के पास आकर बैठ गयी। मतलब यह कि गुरु के पास शब्दविद्या, ब्रह्मविद्या और शांति भी हो।

महाराष्ट्र के संत रामदास स्वामी ने लिखा है :

' विवेका सारिखा नाहीं गुरु। चित्ता सारिखा शिष्य चतुरु।।

‘विवेक के समान गुरु नहीं और चित्त के समान चतुर शिष्य नहीं।’ चित्त चिंतनशील होता है, जबकि मन होता है गोडाउन (गोदाम)! जो भी कचरा आया, मन में भर रखते हैं, पर चित्त चिंतनशील है। जो चिंतनशील है, वह उत्तम शिष्य है। तो, हमारा चित्त चिंतनशील हो और हम विवेक की ही शरण जाएँ। अंतर्यामी भगवान तो हैं ही। यदि आप विवेक से सोचें तो अंतर्यामी भगवान आपको अवश्य उत्तर देंगे।

गुरु के पास क्या सीखना चाहिए, तो कहते हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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