भागवत धर्म मीमांसा2. भक्त लक्षण' यह है तीसरे दर्जे का भक्त!
' 'देव सारावे परते। संत पूजावे आरते।। ‘परते’ यानि उस पार, ‘आरते’ यानि इस पार। भगवान की मूर्ति को दूर करो और प्रथम संतों की पूजा करो। मतलब यह कि आपके घर में कोई संत आया और आप भगवान की मूर्ति की पूजा में लगे हों, तो उसे छोड़कर पहले संत की पूजा करें। मूर्ति-पूजा अलग रखकर संत की पूजा करने लगेंगे, तो जरा ऊपर उठेंगे- यह तुकाराम के इस वचन में खूबी है। वे कहते हैं कि जरा आधी डिग्री तो ऊपर उठो। सवाल आता है कि संत कैसे पहचाना जाए? मूर्ति के बारे में तो यह सवाल पैदा ही नहीं होता। वहाँ चित्त डाँवाडोल नहीं होता, शत प्रतिशत श्रद्धा होती है। किंतु कोई संत आता है, तो तुरंत सवाल पैदा होता है कि वह संत है या नहीं? संतों की परीक्षा करें, तो आपको वह अधिकार नहीं। यानि बिना परीक्षा किए ही उनका आदर करना होगा। कहने का अर्थ इतना ही है कि लोग जिसे ‘सज्जन’ मानते हैं, उन्हें हम नम्रतापूर्वक सज्जन मानें। पत्थर की मूर्ति जैसी हो, वैसी स्वीकार करके श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं। इसी तरह हमें भी श्रद्धापूर्वक बिना परीक्षा किए संतों की पूजा करनी चाहिए। फिर इसके लिए मूर्ति की पूजा अलग रखनी पड़े, तो भी हर्ज नहीं। इससे भगवान नाराज नहीं होंगे। भक्तों का इस तरह का वर्णन गीता में नहीं मिलता। सब भूतों में भगवान को देखो, यह बात गीता में है, लेकिन भक्तों के ये तीन दर्जे वहाँ नहीं मिलते। भक्तों के ये जो दर्जे बताये हैं, उनका क्या अर्थ है? क्या उनमें मान-सम्मान की बात है? ऐसा नहीं। हमारे लिए सहूलियत मात्र कर दी गयी, इतनी ही बात है। एक के बाद एक सीढ़ी बतायी है, ताकि हम आगे बढ़ सकें। इससे चित्त एकाग्र करने में कठिनाई नहीं होगी। जिस पर श्रद्धा हो, उस पर चित्त एकाग्र होता है, इसलिए पहले यह बात बतायी। फिर चार प्रकार की भावनाएँ बतायीं। यह उससे आगे का क़दम हुआ। फिर उत्तम भक्त तक पहुँचने के लिए रास्ता बताया। मतलब यही कि यदि आप इस रास्ते से जाते हैं, तो अपने ध्येय तक पहुँच सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.2.47
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