भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 82

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भागवत धर्म मीमांसा

2. भक्त लक्षण

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(3.2) ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।
प्रेम-मैत्री-कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यम:॥[1]

यह है द्वितीय श्रेणी का- दूसरे दर्जे का भक्त!

  • ईश्वरे- ईश्वर में।
  • तदधीनेषु- ईश्वर के भक्तों में।
  • बालिशेषु- सामान्य मूढ़जनों में।
  • द्विषत्सु- हमसे द्वेष-दुश्मनी करने वालों में।
  • यः- जो।
  • प्रेम-मैत्री-कृपोपेक्षा- क्रमशः प्रेम, मैत्री, कृपा और उपेक्षा।
  • करोति- करता है।
  • स मध्यमः- वह मध्यम कोटि का यानि द्वितीय श्रेणी का भक्त कहा गया है।

इस तरह यहाँ 1. परमेश्वर, 2. परमेश्वर के भक्त, 3. मढजन और 4. दुश्मनी करने वाले- ऐसे चार वर्ग बताये। भक्त इन चारों के साथ चार प्रकार के व्यवहार करता है, यानि उसके व्यवहार में कुछ भेद है। उसके चित्त में परमेश्वर के लिए प्रेम होगा। सारा प्रेम उसने परमेश्वर के लिए ही इकट्ठा किया है। प्रेम का ईश्वर के लिए समर्पण ही उसका निर्णय है। फिर, ईश्वर के जो भक्त हैं, उनके साथ वह मैत्री करता है, यानि उनका ‘फ्रैंड यूनिट’ होता है। ‘मैत्री’ शब्द ईसाइयों में बहुत प्रचलित है। उनमें ‘मैत्री-संघ’, ‘मित्र संघ’ इस तरह के संघ हुआ करते हैं। फिर जो मूढ़जन हैं, उनके लिए उसके मन में कृपा यानि करुणा होती है और जो दुश्मनी करते हैं, उनके लिए उपेक्षा। कौन दुश्मन है, यह हम नहीं जानते। लेकिन यदि कोई दुश्मनी करता है, तो भक्त उसकी उपेक्षा करेगा। यानि उसकी ओर ध्यान नहीं देगा। इस प्रकार की भावना करने वाला नंबर दो का भक्त होगा।


भगवान बुद्ध ने भक्त की जो कल्पना की थी, वही यह है। किंतु उन्होंने सर्वोत्तम भक्त की यह कल्पना की, जबकि भागवत के अनुसार वह नम्बर दो में आता है। भगवान बुद्ध ने भी कहा था कि भक्त को चार प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। गौतम बुद्ध ने 40 दिन उपवास किये थे। ईसा और मूसा ने भी 40 उपवास किये। शायद यह प्रथा गौतम बुद्ध से ही आयी हो। मुझे वेद में भी इस अर्थ के कुछ वचन मिले हैं, जिनमें 40 उपवासों की बात कही गयी है। लेकिन वह मेरा ख़ास अर्थ है। गौतम बुद्ध ने 40 दिनों के उपवास के अंत में जब आँखें खोलीं तो उन्हें एक दिशा में मैत्री का दर्शन हुआ, दूसरी दिशा में करुणा का तीसरी में प्रेम का तो चौथी दिशा में उपेक्षा का दर्शन हुआ। तब से वे ये चार भावनाएँ समझाने लगे। पर भागवत कहती है कि जो ऐसी भावना करेगा, वह नम्बर दो का भक्त होगा; क्योंकि उसमें एक ईश्वर, एक भक्त, एक मूढ़ और एक दुश्मन, ऐसी पहचान है अर्थात भेदबुद्धि या विवेक है। पर नंबर एक के भक्त में यह पहचान भी नहीं होती।


पतंजलि ने ‘योगसूत्र’ में यह कहकर कि ‘चार प्रकार की भावना करोगे तो चित्त प्रसन्न रहेगा’- मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा- ये चार प्रकार बताये हैं। दुःखी जनों के लिए करुणा, सुखी जनों के साथ मैत्री, पुण्यवानों को देखकर आनंद या प्रेम और पापियों की उपेक्षा यानि दूसरों के पाप की तरफ ध्यान न देना।

सारांश

सुख, दुःख, पाप, पुण्य,- ये चार विषय बताकर उनके लिए चार प्रकार की भावनाएँ करने पर चित्त प्रसन्न होगा, यह पतंजलि का मत है। यही भाव उन्होंने निम्नलिखित रूप में सूत्रबद्ध किया है :

'मैत्री-करुणा-मुदितोपेक्षाणां सुख-दुःख-पुण्यापुण्य-
विषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।[2]

ये चार ही बातें भागवत में कही गयी हैं, लेकिन उनमें थोड़ा फ़रक है। वहाँ ईश्वर के लिए प्रेम बताया गया है। पुण्यवान का अर्थ ईश्वर भी हो सकता है, लेकिन यहाँ वैसा नहीं है। भागवत के इस श्लोक में ईश्वर और उसके भक्त दोनों में भेद है, यह स्पष्ट कर दिया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.2.46
  2. योगसूत्र 1.33

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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