भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 76

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भागवत धर्म मीमांसा

1. भागवत-धर्म

 
(2.3) यानास्थाय नरो राजन्! न प्रमाद्येत कर्हिचित्।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह।।[1]

  • यान् आस्थाय- जिन धर्मों का आश्रय लेकर।
  • न प्रमाद्येत कर्हिचित्- कभी प्रमाद होगा ही नहीं।
  • धावन् निमील्य वा नेत्रे- चाहे दौड़े चले जाओ या आँखें बंद कर।
  • न स्खलेत् न पतेत्- न ठेस लगेगी, न गिरेगा।

यह ऐसा मार्ग है कि आँखें बंद रखकर दौड़े चले जाएँ, तो भी ठेस नहीं लगेगी, गिरेगे नही। ‘धाव’ यानि दौड़ना। संस्कृत के इस धातु पर से मराठी में ‘धावणें’ क्रियापद बना है। संस्कृत में दूसरा एक धातु है ‘द्रु’। उस पर से हिंदी में ‘दौड़ना’ क्रियापद बना है। इन धर्मों का आश्रय लेकर चलें तो कभी प्रमाद होगा ही नहीं। गलती होगी ही नहीं, क्योंकि गलती करेंगे तो उसे भी भगवान को अर्पण करने के लिए कहा गया है। फिर गलती का डर ही क्या रहा? गलतियाँ करने की आपको पूरी इज़ाजत है। यह मार्ग ही ऐसा है, जो कुछ भी करें, सारा भगवान को अर्पण कर देने के लिए कहता है।

 (2.4) कायेन वाचा मनसेंद्रियैर् वा
बुद्धध्याऽऽत्मना वाऽनुसृतस्वभवात्।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत् तत्।।[2]

  • कायेन वाचा मनसा- शरीर, वचन या मन से।
  • इंद्रियैः बुद्धध्या आत्मना वा- अथवा इंद्रियों से, बुद्धि से या आत्मा से।
  • अनुसृतस्वभावात् (प्रकृतिस्वभावात्) वा- जो कुछ अपना स्वभाव हो, तदनुसार।
  • करोति यद् यत् सकलम्- आप जो कुछ भी करें सब।
  • परस्मै नारायणाय इति तत् समर्पयेत्- वह परमात्मा नारायण को समर्पण है; ऐसी भावना करके करें।

‘गीता प्रवचन’ के नवें अध्याय में एक कहानी है- कृष्णार्पण की। वह कहानी हमारी माँ ने हमें बचपन में सुनायी थी। एक बहन सब कुछ कृष्णार्पण किया करती थी। गाँव में एक कृष्ण- मंदिर था। तो, वह जो भी कृष्णार्पण करती, सारा वहाँ की मूर्ति पर आ गिरता। उसने हाथ धोया और कह दिया : ‘कृष्णार्पण’, तो पानी मूर्ति पर पड़ा। घर लीपकर गोबर फेंका और कहा : ‘कृष्णार्पण’, तो गोबर मूर्ति पर लग गया। जब वह बहन मरी और भगवान के दूत विमान (हवाई जहाज) लेकर उसे ले जाने के लिए आये, तो वह बोली : ‘कृष्णार्पण’। तो, वह विमान एकदम उस मूर्ति पर टूट पड़ा और मूर्ति खंडित हो गयी। लोगों ने पूछा : ‘यह क्या हुआ?’ तो पुजारी जी बोले : ‘एक स्त्री है, जो हर बात कृष्णार्पण करती है। उसी का यह सारा तमाशा है।’

सार यह कि जो भी करें, उसे भगवान को अर्पण करें। अपने कर्मों का नियमन करने की जरूरत नहीं। शरीर, मन, वाणी, इंद्रियों या बुद्धि से जो भी कर्म करें, सकलं परस्मै नारायणाय! यह भागवत धर्म की चतुराई है, क्योंकि जहाँ मनुष्य भगवान को अर्पण करने का ख्याल करेगा, वहाँ उससे गलत काम होना संभव ही नहीं। जान बूझकर कोई खराब काम करने जाएगा, तो भगवान को अर्पण करने की बुद्धि ही उसे पैदा नहीं होगी। भगवान को अर्पण करने की बात याद आते ही गलत काम रुक जाएगा। यह खूबी है इसमें! यह हो सकता है कि यह बुरा काम है, इसकी पहचान ही न हो, और उसे कर ले। लेकिन जान-बूझकर जिसे वह खुद बुरा मानता है, उसे करते चला जाए और कहे कि ‘मैं भगवान को अर्पण करता हूँ’ तो वह हो नहीं सकता। मतलब यह कि भगवत-स्मरण के साथ बुरा काम टल जाता और अच्छा काम सहज बनता है। उसमें कठिनाई नहीं रहती।

यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है। बहुत के कंठ में होता है, लेकिन थोड़ा फ़रक करके बोलते हैं-

करोमि यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि।

इस तरह ‘करोति’ के बदले ‘करोमि’ बोलते हैं। व्यक्तिगत समर्पण करना है, इसलिए प्रथम पुरुष कर लेते हैं। गीता में भी यह विषय आया है-

 यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम्।।

एक ही चीज है, लेकिन इसे उन्होंने नाम दिया है- भागवत धर्म, भगवान की भक्ति का सरल मार्ग।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.2.35
  2. भागवत-11.2.36

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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