भागवत धर्म मीमांसा11. ब्रह्म-स्थिति दीखता है कि प्रत्येक जन्तु यानि हर प्राणी दुनिया में कर्म करता है। वह कर्म करता है, इतना ही नहीं, उसके द्वारा कर्म किया जाता है। हमने पृथ्वी को लात मारी, तो हम ‘कर्ता’ बने। लेकिन (लात मारने से) ‘पाँव को जोर से लगा’ तो हम कर्म बने। मतलब यह कि हम दुनिया को बनाते जाते हैं तो दुनिया भी हमें बनाती है, यानि हम दुनिया द्वारा बनते हैं। यहाँ कर्म का अर्थ ‘विक्रिया’ जैसा है – करोति कर्म क्रियते च। मनुष्य काम करता है। उस काम का उस पर उल्टा परिणाम होता है। वह चीज हम पर उल्टी आती है। कुल्हाड़ी लेकर पेड़ काटने लगे या हथौड़ी से पत्थर फोड़ने लगे, तो हाथ में फफोला हो आया। पत्थर तो हमने काटा, हम कर्ता बने, लेकिन पत्थर ने भी हमें काटा – फफोला किया, यानि हम कर्म बने। डॉ. धीरुभाई बाबा को ‘मसाज’ (मालिश) करता है। वह कर्ता है, लेकिन ‘मसाज’ करते-करते उसे पसीना आता है, तो वह कर्म बनता है। यानि कर्म का भी परिणाम होता है।
विद्वान मनुष्य की क्या हालत है? वह भी प्रकृति में स्थित है, जैसे कि दूसरे लोग। फिर भी वह न कुछ करता है, न किसी से किया जाता है। वह कर्म के बन्धन में नहीं पड़ता, क्योंकि वह निवृत्त-तृष्णः है – नचाने वाली तृष्णा से मुक्त है। बुद्ध भगवान ने उसे ‘तण्णा’ कहा है। वह मनुष्य को नचाती है। पर विद्वान की तृष्णा निवृत्त हो गयी है। वह आत्मसुख की अनुभूति में मग्न है – स्वसुखानुभूत्या। आत्मसुख की यह अनुभूति हरएक को हो सकती है। कैसे? तो देखिये : दो क्रियाओं के बीच जो क्षण होता है, उस पर ध्यान दीजिये और उसे बढ़ाते जाइये। निद्रा तो गयी, लेकिन जागने के बाद का काम शुरू नहीं किया गया। इस बीच जो अवस्था होती है, उसमें आत्मस्थिति का भान हो सकता है। रात बीत गयी, लेकिन दिन नहीं निकला। इस बीच जो समय होता है, उसमें आत्मस्थिति का अनुभव हो सकता है। हम सांस अन्दर लेते हैं और बाद में बाहर छोड़ते हैं। इस लेने और छोड़ने के बीच जो थोड़े समय का फासला है, वह निर्विकार होता है। ज्ञानदेव महाराज ने उपमा दी है : जाड़ों के दिनों में नदी का जो रूप है, वह आत्मस्थिति है। बारिश में नदी को बाढ़ आती है और गरमी में नदी सूख जाती है। लेकिन जाड़ों के दिनों में नदी को न बाढ़ आती है, न सूखा। इस तरह बीच की अवस्था में मनुष्य को आत्मस्थिति का भान होता ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.28.30
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