भागवत धर्म मीमांसा10. पूजा(27.3) मल्लिंग-मद्भक्तजन-दर्शनस्पर्शनार्चनम् । अब सारा कार्यक्रम बता रहे हैं : ‘लिंग’ यानि मूर्ति। मल्लिंग यानि मेरी मूर्ति। मेरी मूर्ति का दर्शन करें स्पर्शन करें, और अर्चन यानि पूजा करें। और किसका दर्शन, स्पर्शन, अर्चन करें? भक्तजनों का। उनकी सेवा होनी चाहिए, स्तुति होनी चाहिए। अनेक गुणों और कर्मों का प्रह्व – नम्रतापूर्वक अनुकीर्तन होना चाहिए।
फिर सवाल आयेगा – दर्शन, स्पर्शन, अर्चन मूर्ति और भक्त, दोनों पर लागू करेंगे, तो भक्तों पर बहुत अधिक बोझ पड़ेगा? लोग उन्हें सतायेंगे। इसलिए भक्तों की परिचर्या करने के लिए कहा। यह सारा संतों की पूजा या सज्जनों के स्वागत का कार्यक्रम बता रहे हैं। (27.4) मत्कथा-श्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव! सज्जनों का स्वागत-सेवा करके उन्हें विदा कर दें तो काम ठीक न होगा। उनसे लाभ उठाना चाहिए, भगवत्कथा सुननी चाहिए – मत्कथाश्रवणे श्रद्धा। श्रवण किससे करें? अपने यहाँ जो सज्जन आते हैं, उनसे। फिर कह रहे हैं कि मेरा ध्यान करना है, तो उसके लिए क्या करें? सर्वलाभोपहरणम् – जितना लाभ हुआ हो, उतना सारा भगवान को अर्पण करें। सज्जनों की चरण-सेवा करके उनसे अपना दुःख आदि निवेदन करना चाहिए। दिल खुला ही नहीं, तो यह कैसे होगा? इसलिए कहा : दास्येनात्म-निवेदनम् – दास्यपूर्वक यानि सेवा करके आत्म-निवेदन करें। मतलब यह कि अपनी राम-कहानी उन्हें सुनानी चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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