भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 121

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भागवत धर्म मीमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 (19.8) कर्मणां परिणामित्वात् आविरिंचादमंगलम् ।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येत् अदृष्टमपि दृष्टवत् ॥[1]

अभी तक हमने वैराग्य कैसे पैदा होता है, यह देखा। वस्तु स्थिर है या नहीं, उसमें तथ्य है या नहीं, यह देखने के लिए प्रमाण चाहिए। मूल्यांकन करना है, तो उसे प्रमाण की कसौटी पर कसना होगा। तब समझ में आयेगा कि विषय-भोग उस प्रमाण की कसौटी पर टिक नहीं पाते। वे विकल्प हैं, कल्पनामात्र हैं। अब इस श्लोक में दूसरी दृष्टि बता रहे हैं :

कर्मणां परिणामित्वात् – कर्म परिणामी हैं, परिवर्तनशील हैं और उनका बहुविध परिणाम निकलता है। आपने बगीचा लगाया। उसमें सुन्दर पेड़ लगाये। उनसे आपको फल भी मिलेंगे और छाया भी। फिर उन पेड़ों पर बन्दर आकर बैठेंगे, तो आपके घर की छत के खपरैल फूटने लगेंगे। हमारे हाथ से जो कर्म होंगे, उनसे हमारा उद्धार नहीं होगा।


हमारे उद्धार के लिए अतिरिक्त शक्ति चाहिए। कर्म के भिन्न-भिन्न परिणाम आयेंगे। हिसाब लगाकर उनका अच्छा परिणाम लायें, यह भी नहीं बन सकेगा; क्योंकि वह मुश्किल है। स्वराज्य आया तो देश के दो टुकड़े हुए, लोग मारे गये, और भी कई बातें हुईं। लेकिन इसके लिए स्वराज्य नहीं आया। तो, कर्म के परिणाम आपकी मर्जी के अनुसार नहीं होते। दुनिया में जो शक्तियाँ (फोर्सेस्) काम कर रही हैं, उनका असर उन पर होता है। आपने तीर फेंका तो आपके हाथ से वह छूटा, इतना ही। उसके परिणाम आपके हाथ में नहीं।


आविरिंचात् अमंगलम् – विरिंच यानि ब्रह्मदेव, जो एक बहुत बड़ा जीव है। वह जीव भी है और किसी कर्म का परिणाम भी। इसलिए वह भी पवित्र नहीं। सामान्य जीव से लेकर ब्रह्मदेव तक कर्म के परिणाम निकलते हैं, इसलिए वे शुभ नहीं। यह ध्यान में आ जाए, तो वैराग्य पैदा होता है।

इस दृष्ट दुनिया में नश्वरता है, वैसे ही उस अदृष्ट दुनिया में भी नश्वरता है। जिसने यह पहचान लिया, उसे देह के लिए आसक्ति पैदा नहीं होगी।

 (19.9) भक्ति-योगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणस्य तेऽनघ! ।
पुनश्च कथयिष्यामि मद्‍भक्तेः कारणं परम् ॥[2]

इस श्लोक में पुनरावृत्ति ही है। भगवान उद्धव से कहते हैं : भक्तियोग जानना चाहते हो, वह तो हम पहले भी (14वें अध्याय में) कह चुके हैं। पर हे निष्पाप, मेरे प्रिय भक्त! तुम्हें श्रवण में अभिरुचि है, इसलिए फिर से कहूँगा।

भक्तियोग के साधन भगवान सुनाते हैं। ये साधन भागवत में बार-बार कहे गये हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.19.18
  2. भागवत-11.19.19

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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