भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 111

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भागवत धर्म मीमांसा

4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

चित्त अधिकाधिक शुद्ध करना चाहिए। इन दिनों ‘एक्टिविटी’ (क्रिया) पर अधिक जोर दिया जाता है। कहते हैं :‘हमें आन्दोलन करना है।’ लेकिन मैंने ‘आन्दोलन’ के बदले ‘आरोहण’ कहा। युधिष्ठिर की कहानी है। आख़िरी उम्र में वे भाई और पत्नी के साथ स्वर्गारोहण के लिए निकले। उनमें से एक-एक गिरता गया। फिर भी वे अकेले आगे बढ़ते गये। इसे ‘आरोहण’ कहा गया है। ‘एक्टिविटी’ में शक्ति है। लेकिन जितनी चित्त-शुद्धि होगी, उतना ही क्रिया के बिना परिणाम अधिक होगा।


जडवत् बनने का दूसरा भी अर्थ लिया जाता है, जिसके लिए मैं आपको सचेत करना चाहता हूँ। मानते हैं कि जडवत् बनना यानि जो सहज होगा, वही करना। परिणामस्वरूप लोग तमोगुण में पड़ेंगे। जान-बूझकर क्रिया कम करने की आवश्यकता नहीं। जैसे-जैसे चित्त-शुद्धि होगी, वैसे-वैसे बाह्य-क्रिया कम होती ही जायेगी। वह कम करनी नहीं पड़ेगी। तम हम लोके जडवत् आचरेत् –मनु के इस वाक्य के निकट पहुँच जाएँगे।


हमने अनुभव किया है कि भगवान की प्रवृत्ति की तीव्र प्रेरणा उसकी निवृत्ति में होती है। इसलिए हम मूर्ति खड़ी करते हैं, उपासना करते हैं। मूर्ति न बोलती है, न कुछ करती है। लेकिन उससे भक्त को प्रेरणा मिलती है। यह क्रिया परमेश्वर के निकट पहुँचाती है।


इससे यह भ्रम न हो कि हम तमोगुण के निकट जा रहे हैं। तमोगुण और इस अवस्था में बहुत अन्तर है। तमोगुण और समाधि में भी बहुत अन्तर है और समाधि तथा इस अवस्था में भी अन्तर है। शास्त्रकारों ने कहा है : समाधिः लयः। समाधि यानि लयावस्था। लयावस्था में जाना लाभदायी बात नहीं। फिर भी कुछ साधक उसके पीछे पड़ते हैं। किन्तु उसमें उन्हें कृतार्थता का भास होना लाभदायी नहीं। साधक को सदैव यह अनुभव होना चाहिए कि हमारे और हमारे ध्येय के बीच अन्तर बढ़ ही रहा है। ख़्याल होना चाहिए कि जैसे-जैसे हम अपने आदर्श के निकट जाते हैं, वैसै-वैसे हमारा आदर्श आगे बढ़ रहा है।


गांधीजी स्थितिप्रज्ञ के लक्षण को सदैव सामने रखते थे। वह उनका आदर्श था। लोग मानते थे कि गांधीजी वहाँ तक पहुँच गये। लेकिन गांधीजी बार-बार कहते कि ‘मैं बहुत दूर हूँ।’ जो कहता है कि मैं नज़दीक हूँ, वह तो दूर होता ही है, इसमें कोई शक नहीं। मैं हमेशा एक मिसाल दिया करता हूँ। दो भाई बिस्तर पर लेटे थे। एक से पूछा कि नींद आयी, तो उसने कहा :‘नहीं।’ दूसरे से पूछा तो उसने कहा :‘हाँ।’ मतलब यह कि दोनों को नींद नहीं आयी। उसे केवल भास हुआ कि नींद आयी। ऐसे ही जो समझता है कि ‘मैं कृतार्थ हूँ’, उसे कृतार्थता का भास होता है। वास्तव में उससे वह बहुत दूर है।


अभी तक हमने मुक्त पुरुष के लक्षण पढ़े। आगे श्लोक 15 से 22 में भक्त-लक्षण हैं। इसलिए हम उन्हें छोड़ देते हैं। भगवान ने उद्धव और अर्जुन को उपदेश दिया है। दोनों उनके साथी थे। अर्जुन भगवान के सार्वजनिक काम का प्रतिनिधि था। उसे भी भगवान ने उपदेश दिया। लेकिन उद्धव को भगवान ने जो उपदेश दिया, वह अन्तिम उपदेश है। भागवत में कहा गया बहुत सारा उपदेश गीता में भी है, लेकिन कुछ गीता की पूर्ति भी है। भागवत का जो चुनाव मैंने किया, उसमें यही दृष्टि रखी थी। जो हिस्सा गीता की पूर्ति में है, वही अधिक-से-अधिक इसमें लिया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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