भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 110

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भागवत धर्म मीमांसा

4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

एक नागरिक के नाते जड़भरत ने सोचा कि ‘मैं राजा की प्रज्ञा हूँ और राजा या स्वामी की आज्ञा का पालन मुझे करना चाहिए’ और उसने पालकी कंधे पर उठा ली। लेकिन राजा के अविनीत वचन सुनकर आख़िर में उसे कुछ कहना पड़ा। उसने सोचा कि ‘अब यदि राजा का बोलना सहता रहूँगा, तो इसमें जो दुर्गुण हैं, वे मिटेंगे नहीं।’ यानि राजा पर उसे दया आयी।


यहाँ कहा है –विचरेत् जडवत् मुनिः। यह समझने की बात है। इसका नाटक नहीं हो सकता। जो ज्ञानी है, उसी को यह सधेगा। उसके ज्ञान का प्रकाश पड़ेगा। यानि उसकी मुक्ति की झलक लोगों को दीखेगी। इसके लिए उसे कुछ करना नहीं पड़ेगा, फिर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा। बिना बोले और बिना कुछ किये ही उसका प्रभाव पड़ेगा।


प्रथम, दुनिया जिले भला समझती है, उस बारे में वह नहीं सोचेगा – यह स्थूल अर्थ हमने देखा। फिर, साधारण अर्थ देखा कि आध्यात्मिक दृष्टि से सबका भला हो, यह अवश्य सोचेगा। लेकिन यह श्लोक उससे भी गहरा है।


मनु ने भी आदेश दिया है कि लोके जडवत् आचरेत्। मुक्त पुरुष कितना भी जडवत् आचरण करे, उसका कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ेगा। लेकिन एक विचार मेरे मन में पहले से है और आज भी है कि ‘दुनिया में जो महापुरुष प्रसिद्ध हुए और जिनके नाम हम जानते हैं, उनसे भी बड़े महापुरुष दुनिया में हो चुके, जिनके नाम दुनिया आज जानती नहीं।’ मेरा यह पक्का विचार है। ऐसे ज्ञानी पुरुषों का प्रभाव अवश्य पड़ेगा और उसका ग्रहण उसी को होगा, जो उसके लिए अनुकूल बनेगा। दुनिया नहीं पहचानेगी कि अमुक का प्रभाव हम पर पड़ रहा है। हम जिन महापुरुषों के नाम जानते हैं, वे तो उनकी तुलना में बहुत छोटे हैं।


यहाँ हम एक मिसाल ले सकते हैं। शंकराचार्य के गुरु गोविन्द भगवत्पाद थे, उन्हें दुनिया जानती ही नहीं। भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्- स्तोत्र सब जानते हैं। लोक समझते हैं कि ‘गोविन्द’ भगवान का नाम है। लेकिन शंकराचार्य ने अपने गुरु का निर्देश उस स्तोत्र में खूबी से किया है। जो पूर्णपुरुष होगा, उसकी अभिव्यक्ति, उसका प्रकाश सूक्ष्मरूप में होगा। वह क्रिया का उपयोग, वाणी का उपयोग कम करेगा। शंकराचार्य बहुत बड़े लेखक थे। वाक्पटु थे। उनकी प्रतिभा का प्रभाव पड़ा। ज्ञानदेव महाराज में कवित्वशक्ति थी, योगशक्ति थी। ऐसी शक्ति जिनमें थी, वे लोग लोगों को ज्ञात हैं। लेकिन जिन्हें शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ी, उन्हें दुनिया नहीं जानती। जडवत् मुनि का यही अर्थ है।


मैंने जड़भरत की मिसाल दी। आख़िर उसे भी राजा से कुछ कहना पड़ा, क्योंकि वहाँ करुणा प्रधान हुई। करुणा की उछाल भी आत्मा के ख़्याल से गौण ही है। ‘गीता-प्रवचन’ में मैंने यह विचार अच्छी तरह समझाया है। जहाँ पूर्ण अकर्म-शक्ति प्रकट होती है, वहाँ क्रिया नहीं होती, लेकिन कर्म होता है। वहाँ कामना का प्रश्न नहीं, सहजभाव से कर्म होगा। कुछ करना है, इसकी आसक्ति नहीं। करुणा, प्रेम, सत्य सहज ही हो जाता है। इस प्रकार की करुणा परमेश्वर के निकट पहुँच जाती है।


हमें यही समझना चाहिए कि भागवत में जो लिखा है, वह हमारे चिन्तन के लिए लिखा है, उसे ध्यान में रखकर हमें अपनी मानसिक उछल-कूद कम करनी चाहिए। चित्त अधिकाधिक शुद्ध करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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