भागवत धर्म मीमांसा4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक(11.6) इंद्रियैरिंद्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च। अब ‘विद्वान’ का विवरण करते हैं : विद्वान अहंकार नहीं रखता। मैंने विषयों को ग्रहण किया, ऐसा वह नहीं मानता: गृह्यमाणेष्वह नकुर्यात् विद्वान्। वह पहचानता है कि विषयों को इन्द्रियों ने ग्रहण किया। वह देह को अपने से भिन्न मानता है। इन दिनों आपरेशन के समय क्लोरोफार्म देते हैं। उससे भी यह बात साफ होती है कि हम देह से भिन्न हैं। फिर भी आदमी समझता है कि मैं देह ही हूँ। देह को खाना खिलाया तो खुश होता हूँ। संगीत सुनता हूँ, तो खुश होता हूँ। आजकल बाबा के कान कम सुनते हैं। 4 प्रतिशत सुनने की शक्ति कम हुई, ऐसा कहा जाता है। मतलब, बाबा का एक बहुत बड़ा साधन गया। बाबा कहता है कि रास्ते पर मोटरें दौड़ती हैं, आवाज़ होती है, फिर भी मुझे शान्ति मालूम होती है। होना यही चाहिए कि कान सुनते हैं, फिर भी सुनते नहीं। आँखें देखती हैं, फिर भी देखती नहीं। यही चीज हमें सीखने की है, जिससे मनुष्य का जीवन सफल हो सकता है। यही विद्या है।
(11.7) दैवाधीने शरीरेऽस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा। अब भगवान अज्ञानी मनुष्य का लक्षण बता रहे हैं – अबुधः यानि अज्ञानी। अस्मिन् दैवाधीने शरीरे –शरीर कैसा है? दैवाधीन है। मैंने एक बहन को पत्र लिखा था। वह एक सार्वजनिक सेविका है। मैंने उसे लिखा कि ‘सार्वजनिक सेवक को कभी कर्जा नहीं लेना चाहिए और न कर्जा देना चाहिए। वे दान ले सकते हैं और दे भी सकते हैं, लेकिन कर्जा नहीं। कारण कर्जा लेने में वादा होता है कि वह अमुक समय तक वापस किया जाएगा, आदि। लेकिन जीवन का क्या भरोसा है? जो शरीर दैव के अधीन है, उसमें रहकर वादा होता है। किन्तु उस शरीर पर भरोसा कैसे रख सकते हैं?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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