भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 104

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भागवत धर्म मीमांसा

4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

(11.6) इंद्रियैरिंद्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च।
गृह्यमाणेष्वहं कुर्यात् न विद्वान् यस्त्ववि क्रियः॥[1]

अब ‘विद्वान’ का विवरण करते हैं : विद्वान अहंकार नहीं रखता। मैंने विषयों को ग्रहण किया, ऐसा वह नहीं मानता: गृह्यमाणेष्वह नकुर्यात् विद्वान्। वह पहचानता है कि विषयों को इन्द्रियों ने ग्रहण किया। वह देह को अपने से भिन्न मानता है। इन दिनों आपरेशन के समय क्लोरोफार्म देते हैं। उससे भी यह बात साफ होती है कि हम देह से भिन्न हैं। फिर भी आदमी समझता है कि मैं देह ही हूँ। देह को खाना खिलाया तो खुश होता हूँ। संगीत सुनता हूँ, तो खुश होता हूँ। आजकल बाबा के कान कम सुनते हैं। 4 प्रतिशत सुनने की शक्ति कम हुई, ऐसा कहा जाता है। मतलब, बाबा का एक बहुत बड़ा साधन गया। बाबा कहता है कि रास्ते पर मोटरें दौड़ती हैं, आवाज़ होती है, फिर भी मुझे शान्ति मालूम होती है। होना यही चाहिए कि कान सुनते हैं, फिर भी सुनते नहीं। आँखें देखती हैं, फिर भी देखती नहीं। यही चीज हमें सीखने की है, जिससे मनुष्य का जीवन सफल हो सकता है। यही विद्या है।


कितना खाना चाहिए, वह तय करने का अधिकार पेट का है। चीज ठीक है या बे-ठीक, यह देखने का काम जिह्वा का है। लेकिन कोई चीज मीठी लगी तो जिह्वा कहती है कि ज़्यादा खा ले। हमारे पिता जी कहा करते थे कि ‘तुम्हें मुँह में, लड्डू मीठा लगता है तो पेट में ढकेलने की जल्दी क्यों करते हो? ज्यादा देर तक मुँह में रहने दो, चबा-चबाकर खाओ और पूरा चबाने के बाद उसे पेट में ढकेलो तो कम खाकर ज्यादा प्रसन्नता होगी।’ लेकिन आज पेट पर जिह्वा का अधिकार चलता है। जिह्वा ज्यादा खाना चाहती है, पर पेट नहीं चाहता। इसलिए मैंने सुझाया कि चीज जिह्वा पर रखो। जिनती देर चाहते हो, उतनी देर मुँह में रखो और बाद में थूक दो। पेट में ढकेलने का क्या कारण? मतलब यही कि अंदर का मालिक बेवकूफ है, गाफ़िल है। उसे जिह्वा से कहना चाहिए कि जुल्म मत कर। लेकिन यह करेगा कौन? वही, जो समझेगा कि मैं उससे अलग हूँ।

(11.7) दैवाधीने शरीरेऽस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा।
वर्तमानोऽबुधस् तत्र कर्तास्मीति निबध्यते॥[2]

अब भगवान अज्ञानी मनुष्य का लक्षण बता रहे हैं – अबुधः यानि अज्ञानी। अस्मिन् दैवाधीने शरीरे –शरीर कैसा है? दैवाधीन है। मैंने एक बहन को पत्र लिखा था। वह एक सार्वजनिक सेविका है। मैंने उसे लिखा कि ‘सार्वजनिक सेवक को कभी कर्जा नहीं लेना चाहिए और न कर्जा देना चाहिए। वे दान ले सकते हैं और दे भी सकते हैं, लेकिन कर्जा नहीं। कारण कर्जा लेने में वादा होता है कि वह अमुक समय तक वापस किया जाएगा, आदि। लेकिन जीवन का क्या भरोसा है? जो शरीर दैव के अधीन है, उसमें रहकर वादा होता है। किन्तु उस शरीर पर भरोसा कैसे रख सकते हैं?’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.11.9
  2. भागवत 11.11.10

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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