भागवत धर्म मीमांसा4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक(11.5) देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान् स्वप्नाद् यथोत्थितः। विद्वान किसे कहा जाए? तो कहते हैं : देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान् –जो देह में रहते हुए भी देह में नहीं रहता, उससे अलग रहता है, वह विद्वान है। स्वप्नाद् यथोत्थितः –जैसे स्वप्न से जाग जाने के बाद मनुष्य को स्वप्न का भान नहीं होता। विद्वान मनुष्य भी देह को स्वप्न ही मानता है। लेकिन अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः –जो अविद्वान होता है, वह देह में न रहते हुए भी देह में रहता है। देह ढह रही है, मर रही है, फिर भी उसे नहीं छोड़ता। मतलब यह कि यह देह जाएगी, तो दूसरी देह पकड़ेगा। यहाँ के मालिक ने धक्का देकर निकाल दिया, तो दूसरा घर ढूँढ़ेगा। वह खुली हवा से भी घबड़ाता है। बिना देह के उसे चैन ही नहीं। पर विद्वान देह में रहते हुए भी समझेगा कि ‘मैं इसमें नहीं हूँ, अपने में हूँ।’
काजव्याची ज्योति। तुका म्हणे न लगे वाती॥ ‘खद्योत’ (जुगनूँ) की ज्योति है, उससे कोई दिया जलाने जाएगा तो कैसे जलेगा? वह ज्योति केवल देखने भर की ही है। उससे लोगों को प्रकाश तो मिलता नहीं, फिर भी वह स्वयं खुश है। भगवान ने थोड़ी-थोड़ी बुद्धि सबको बाँट दी है और बहुत बड़ा हिस्सा अपने पास रख लिया है। जो थोड़ी बुद्धि उसने बाँटी है, उसी से हम सबका काम चल जाता है। हमारा काम है भी कितना? भगवान के हिसाब से बहुत ही थोड़ा, इसलिए अक्ल भी थोड़ी है। जो थोड़ा हिस्सा हमें मिला है, उसी पर हम सन्तुष्ट हैं। जो मनुष्य स्वप्न में है, वह उस अल्पबुद्धि पर ही सन्तुष्ट है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.11.8
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