जाने के एक दिन पहले तक बड़े आनन्द से
साथ नाचे-कूदे,
मानो जीवनभर ऐसा ही करना है,
और अचानक दूसरे दिन
क्रूर अक्रूर के साथ रथ में बैठकर चल दिये।
मुख पर तनिक भी उदासी नहीं,
तनिक भी चिन्ता नहीं।
हम रोती-बिलबिलाती रह गयीं,
आप रथ से न उतरे,
रथपर से ही समझा-बुझा दिया।
यही तुम्हारा प्रेम था?
सच कहती हूँ कन्हैया!
अब तुम मिलो तो तुम्हें जी भरकर कोसूँ,
तुम्हारी मुरली तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दूँ।
तुम्हारी ओर ताकूँ भी नहीं,
तुम मनाते-मनाते हार जाओ,
पैर पकड़कर बार-बार क्षमा माँगो,
तब कहीं बोलूँ।
मगर तुम तो आते ही नहीं,
हाय राम! क्या करूँ?