गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19प्रारम्भ में ही का गया है कि गोपांगनाओं के इस भावपूर्व गीत का अर्थ ‘श्रीकृष्णैकगम्यः’ एकमात्र प्रभु श्रीकृष्ण चन्द्र ही जान सकते हैं। भगवान् शंकराचार्य जी अपने ग्रंथ ‘आनन्दलहरी’ में राज-राजेश्वरी-त्रिपुर-सुन्दरी श्री ललिता पराम्बा का सौन्दर्य-वर्णन करते हैं। ‘धृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपि पदैर्विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः। अर्थात, हे मातः! जैसे मधु, द्राक्षा, दुग्ध शर्करादि की भिन्न-भिन्न मधुरिमा का भेद वाणी का विषय नहीं है, वैसे ही आपका अनुपम सौन्दर्य भी एक मात्र परम पूत दृष्टि का ही विषय है; तदभिन्न अन्य के लिए आपका सौन्दर्य-वैभव सर्वथा अगोचर ही है। इसी तरह, गोपांगनाओं के पवित्र गीतामृत के माधुर्य के रसास्वादनप में एक मात्र रसिक-शिरोमणि, व्रजेन्द्र-नन्दन, मदन-मोहन, श्याम-सुन्दर श्रीकृष्ण की समर्थ हैं। भगवान् श्रीकृष्ण की विशिष्ट अनुकम्पा-प्राप्त जन भी वक्ता एवं श्रोतागण के रसना, श्रोत्र एवं हृदय को शुद्ध करने के हेतु से ही इस गीत का यत्किंचित् वर्णन कर लेते हैं। ‘प्रलापोऽनर्थकं वच:’ अनर्थक वचन ही प्रलाप हैं जैसे अनुभवहीन अज्ञानी के लिए ‘एकोऽनास्ति द्वितीयं’, ‘अहं ब्रह्मस्मि’, ‘सोऽहम्’ गम्भीर श्रुति-वचन भी निरर्थक ही प्रतीत होते हैं परन्तु अध्ययन-मनन कर्ता के लिये निराकार निर्गुण ब्रह्म-परिचयात्मक होते हैं इसी तरह सर्व-सामान्य के लिये सामान्य उक्तिवत् प्रतीत होने वाले ‘चलसि यदु व्रजाच्चारयन् पशून नलिन सुन्दरं नाथ ते पदम्’ जैसे भाव-परिपूर्ण गोपांगनाओं के वचनों पर रसिक-शिरोमणि भगवान् आनन्दकन्द, परमानन्द श्री कृष्णचन्द्र भी अपनी सर्वेश्वरता के सिंहासन पर आरूढ़ नहीं रह पाये; प्रेम-रस पगे वे नंगे पाँवों ही दौड़ पड़े। ‘इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा।’ गोपांगनाएँ ‘चित्रं-चित्रं-चित्रं’ भिन्न-भिन्न प्रकार से विलाप करने लगीं। गोपांगनाएँ अपरिगणित हैं, उनकी स्थिति की कान्त-भाव, महाभाव, अधि-रूढ़ भाव आदि भिन्न-भिन्न हैं; अपनी-अपनी विशिष्ट भावना एव स्थितियों के अनुसार ही उनके प्रलाप भी अनेक प्रकार के हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आनन्दलहरी 2