गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15‘अपराऽनिमिषद्दृग्म्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्। अर्थात, जैसे संतजन भगवान् के मंगलमय चरणारविन्दों का रसास्वादन करते हुए नहीं अघाते अपितु उनकी पिपासा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती रहती है; अथवा जैसे सन्निपात ज्वर-ग्रस्त रोगी को पिपासा शीतल सुगन्धित जलपान से वृद्धिंगत होती जाती है वैसे ही भक्त की पिपासा भगवान् के माधुर्यामृत के रसास्वादन से वृद्धिंगत ही होती रहती है। जिनको राम चरित सुनते-सुनते तृप्ति हो गई उन्होंने रस की परिभाषा ही नहीं समझी। अर्थात, यद्यपि द्वारकास्थ पट्टमहिषी जनों एवं श्रीव्रजसीमंतिनी जनों का पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण से कदापि वियोग नहीं होता, सदा सर्वदा पूर्णरूप से उनको भगवत्-संस्पर्श प्राप्त है तथापि भगवान् के मंगलमय चरणारविन्द-युगल उनको प्रतिक्षण नवनवायमान होकर ही प्रतिभासित होते हैं क्योंकि यह रस अगाध है, अनन्त है। जैसे अनन्त आकाश में अपनी-अपनी शक्तिभर उड़ने पर भी उसकी थाह नहीं पायी जा सकती वैसे ही अपनी-अपनी भावनानुसार भगवान् के अन्तानन्त सौन्दर्य-माधुर्य सौरस्य-सुधा का रसास्वादन करते हुए भी भक्त अघाते नहीं। कौन ऐसी सीमन्तिनी होगी जो भगवान् के मंगलमय पदारविन्द के अद्भुत माधुर्यामृत रसास्वादन कर-कर तृप्त हो जाय? श्री लक्ष्मी चपला-चंचला होते हुए भी भगवच्चरणारविन्दों में अचपला, अचंचला, स्थिरा हो जाती हैं क्योंकि इन चरणारविन्द-युगल के माधुर्यामृत-रसास्वादन के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत आनन्द से अघाती ही नहीं। ‘अपराऽनिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्। अर्थात, श्री भगवान् के अदर्शन-काल में तो भीषण संताप होता ही है परन्तु दर्शन-काल में भी सुख नहीं हो पाता क्योंकि अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं। कभी कोई ग्वाल-बाल ही बीच में आ जाते हैं तो कभी उनकी ये कुटिल घुँघराली लटें ही भगवान्-मुखारविन्द को आवृत कर लेती हैं। |